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मदन-मृणालिनी
 


के चिन्ह दिखाई पड़े । उसने कहा--प्यारे मदन, अब अच्छी हूं।

प्रणय का भी वेग कैसा प्रबल है ! यह किसी महासागर की प्रचण्ड आंधी से कम प्रबलता नहीं रखता। इसके झोंके मे मनुष्य की जीवन-नौका असीम तरंगों से घिरकर प्रायः कल को नहीं पाती,अलौकिक आलोकमय अन्धकार में प्रणयी अपनी प्रणय-तरी पर आरोहण कर उसी आनन्द के महासागर में घूमना पसंद करता है, कूल की ओर जाने की इच्छा भी नहीं करता ।

इस समय मदन और मृणालिनी दोनों की आंखो से आंसुओं की धारा धीरे-धीरे बह रही है। चंचलता का नाम भी नहीं है। कुछ बल आने पर दोनों उस नाव में जा बैठे।

मदन ने मल्लाहों को पास के गांव से दूध या और कुछ भोजन की वस्तु लाने के लिए भेजा । फिर दोनों ने बिछुड़ने के उपरान्त की सब कथा परस्पर कह सुनाई।

मृणालिनी कहने लगी--भैया किशोरनाथ से मै तुम्हारा सब हाल सुना करती थी। पर वह कहा करते थे कि तुमसे मिलने में उनको संकोच होता है । इसका कारण उन्होंने कुछ नहीं बतलाया ।मै भी हृदय पर पत्थर रखकर तुम्हारे प्रणय को आज तक स्मरण कर रही हूँ।

मदन ने बात टालकर पूछा--मृणालिनी, तुम जल मे कैसे गिरी?

मृणालिनी ने कहा--मुझे बहुत उदास देख भैया ने कहा, चलो तुम्हें एक तमाशा दिखलावें, सो मै भी आज यहां मेला देखने आयी। कुछ कोलाहल सुनकर मैं नाव पर खड़ी हो देखने लगी। दो नाववालों में झगड़ा हो रहा था। उन्हीं के झगड़े में हाथा-पाई में नाव हिल गयी और मै गिर पड़ी। फिर क्या हुआ, सो में कुछ नहीं जानती ।

इतने में दूर से एक नाव आती हुई दिखाई पड़ी, उस पर