पृष्ठ:छाया.djvu/२७

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टन ! टन ! टन ! स्टेशन पर घंटी बोली।

श्रावण-मास की सन्ध्या भी कैसी मनोहारिणी होती है ! मेघ- माला-विभूषित गगन की छाया सधन रसाल-कानन में पड़ रही है ! अंधियारी धीरे-धीरे अपना अधिकार पूर्व-गगन में जमाती हुई, सुशासन-कारिणी महाराणी से समान, विहंगप्रजागण को शुख निकेतन में शयन करने की आज्ञा दे रही है । आकाशरूपी शासन-पत्र पर प्रकृति के हस्ताक्षर के समान विजली की रेखा दिखाई पड़ती है...... ग्राम्य स्टेशन पर कहीं एक-दो दीपालोक दिखाई पड़ता है । पवन हरे-हरे निकुजों में से भ्रमण करता हुआ झिल्ली के झनकार के साथ भरी हुई झीलों में लहरों के साथ खेल रहा है। बूदियां धीरे-धीरे गिर रही है,जो कि जूही की कलियों को आर्द्र करके पवन को भी शीतल कर रही है।

थोड़े समय में वर्षा बन्द हो गई। अधन्कार-रूपी अंजन के अग्रभागस्थित आलोक के समान चतुर्दशी की लालिमा को लिये हुए चन्द्रदेव प्राची में हरे-हरे तरुवरों की आड़ में से अपनी किरण-प्रभा दिखाने लगे। पवन की सनसनाहट के साथ रेलगाडी का शब्द सुनाई पड़ने लगा। सिग्नेलर ने अपना कार्य किया । घंटा का शब्द उस हरे-भरे मैदान में गूंजने लगा । यात्री लोग अपनी गठरी बांधते हुए स्टेशन पर पहुँचे । महादैत्य के लाल-लाल नेत्रों के समान अन्जन-गिरिनिभ इन्जिन का अग्रस्थित रक्त-आलोक दिखाई देने लगा। पागलों के समान बड़बड़ाती हुई अपने धुन को पक्की रेलगाड़ी स्टेशन पर पहुंच गई । धड़ाधड़ यात्री लोग उतरने-चढ़ने लगे। एक स्त्री की ओर देखकर फाटक के बाहर खड़ी हुई दो औरतें---जो उसकी सहेली मालूम देती