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छाया
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कुछ इंगित किया, एक वीर पुरुष सामने दिखाई पड़ा। सिकन्दर ने उससे कुछ गुप्त बातें की, और वह चला गया । अन्धकार घनीभूत हो जाने पर सिकन्दर भी उसी ओर उठकर चला, जिधर वह पहला सैनिक जा चुका था।

दुर्ग के उस भाग में, जो टूट चुका था, बहुत शोघ्नता से काम लगा हुआ था, जो बहुत शीघ्र कल की लड़ाई के लिये प्रस्तुत कर दिया गया और सब लोग विश्राम करने के लिये चले गये । केवल एक मनुष्य उसी स्थान पर प्रकाश डालकर कुछ देख रहा है।वह मनुष्य कभी तो खड़ा रहता है और कभी अपनी प्रकाश फैलाने-वाली मशाल को लिये हुए दूसरी ओर चला जाता है। उस समय उस घोर अन्धकार में उस भयावह दुर्ग की प्रकाण्ड छाया और भी स्पष्ट हो जाती है। उसी छाया में छिपा हुआ सिकन्दर खड़ा है।उसके हाथ में धनुष और बाण है, उसके सब अस्त्र उसके पास हैं। उसका मुख यदि कोई इस समय प्रकाश में देखता, तो अवश्य कहता कि यह कोई बड़ी भयानक बात सोच रहा है;क्योंकि उसका सुन्दर मुखमंडल इस समय विचित्र भावों से भरा है।अकस्मात मुख से एक प्रसन्नता का चीत्कार निकल पड़ा, जिसे उसने बहुत व्यग्र होकर छिपाया।

समीप की झाड़ी से एक दूसरा मनुष्य निकल पड़ा, जिसने आकर सिकन्दर से कहा---देर न कीजिये, क्योंकि यह वही है।

सिकन्दर ने धनुष को ठीक करके एक विषमय बाण उस पर छोड़ा और उसे उसी दुर्ग पर टहलते हुए मनुष्य की ओर लक्ष्य करके छोड़ा । लक्ष्य ठीक था, वह मनुष्य लुढ़ककर नीचे आ रहा।सिकन्दर और उसके साथी ने झट जाकर उसे उठा लिया, किन्तु