पृष्ठ:छाया.djvu/६३

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दीपमालाएँ आपस में कुछ हिल-हिलकर इंगित कर रही है, किन्तु मौन है । सज्जित मन्दिर में लगे हुए चित्र एकटक एक दूसरे को देख रहे है, शब्द नही है। शीतल समीर आता है, किन्तु धीरे-से वातायन-पथ के पार हो जाता है, दो सजीव चित्रों को देखकर वह कुछ कह नहीं सकता है। पर्यक पर भाग्यशाली मस्कत उन्नत किये हुए चुपचाप बैठा हुआ युवक, स्वर्ण-पुत्तली की ओर देख रहा है, जो कोने में निर्वात दीपशिखा की तरह प्रकोष्ठ को आलोकित किये हुए है । नीरवता का सुन्दर दृश्य, भाव-विभोर होने का प्रत्यक्ष प्रमाण, स्पष्ट उस गृह में आलोकित हो रहा है।

अकस्मात् गम्भीर कपठ से युवक उद्वेग में भर बोल उठा-- सुन्दरी ! आज से तुम मेरी धर्म-पत्नी हो, फिर मुझसे संकोच क्यों?

युवती कोकिल-स्वर से बोली---महाराजकुमार ! यह आपकी दया है जो दासी को अपनाना चाहते है, किन्तु वास्तव में दासी आपके योग्य नहीं है।

युवक--मेरी धर्मपरिणीता बधू, मालदेव की कन्या अवश्य मेरे योग्य है । यह चाटूक्ति मुझे पसन्द नहीं । तुम्हारे पिता ने, यद्यपि वह मेरे चिरशत्रु है, तुम्हारे ब्याह के लिये नारियल भेजा, और मैने राजपूत-धर्मानुसार उसे स्वीकार किया, फिर भी तुम्हारी-ऐसी सुन्दरी को पाकर हम प्रवंचित नहीं हुए और इसी अवसर पर अपने पूर्व-पुरुषो की जन्म-भूमि का भी दर्शन मिला ।

उदारहृदय राजकुमार ! मुझे क्षमा कीजिये । देवता से छलना मनुष्य नहीं कर सकता । मै इस सम्मान के योग्य नहीं कि पर्यक