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छाया
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पर बैठू, किन्तु चरण-प्रान्त में बैठकर एक बार नारी-जीवन का स्वर्ग भोग कर लेने में आपके-ऐसे देवता बाधा न देंगे ।

इतना कहकर युवती ने पर्यक से लटकते हुए राजकुमार के चरणों को पकड़ लिया।

वीर कुमार हम्मीर अवाक् होकर देखने लगे । फिर उसका हाथ पकड़कर पास में बैठा लिया । राजकुमारी शीघ्रता से उतरकर पलँग के नीचे बैठ गयी।

दाम्पत्य-सुख से अपरिचित कुमार को भवें कुछ चढ़ गयीं, किन्तु उसी क्षण यौवन के नवीन उल्लास ने उन्हें उतार दिया । हम्मीर ने कहा---फिर क्यों तुम इतना उत्कण्ठित कर रही हो ? सुन्दरी ! कहो, बात क्या है ?

राजकमारी--मै विधवा हैं। सात वर्ष की अवस्था में, सुना है कि मेरा ब्याह हुआ और आठवे वर्ष विधवा हुई ! यह भी सुना है कि विधवा का शरीर अपवित्र होता है। तब, जगत्पवित्र शिशौदिया-कुल के कुमार को छूने का कैसे साहस कर सकती हैं?

हम्मीर--है ! क्या तुम विधवा हो ? फिर तुम्हारा ब्याह पिता ने क्यों किया ?

राजकुमारी--केवल देवता को अपमानित करने के लिये ।

हम्मीर की तलवार में स्वयं एक झनकार उत्पन्न हुई। फिर भी उन्होंने शान्त होकर कहा--अपमान इससे नहीं होता, किन्तु परिणीता वधू को छोड़ देने में अवश्य अपमान है।

राजकुमारी--प्रभो ! पतिता को लेकर आप क्यो कलंकित होते है ?

हम्मीर ने मुस्कुरा कर कहा---ऐसे निर्दोष और सच्चे रत्न को लेकर कौन कलंकित हो सकता है ?

राजकुमारी संकुचित हो गयी। हम्मीर ने हाथ पकड़कर उठाकर पलंग पर बैठाया, और कहा--आओ, तुम्हें मुझसे--समाज,