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चित्तौड़-उद्धार
 


संसार--कोई भी नहीं अलग कर सकता।

राजकुमारी ने वाष्परूद्ध कंठ से कहा---इस अनाथिनी को सनाथ करके आपने चिर-ऋणी बनाया, और विहवल होकर हम्मीर के अंक में सिर रख दिया ।

कैलवाड़ा-प्रदेश के छोटे-से दुर्ग के एक प्रकोष्ठ में राजकुमार हम्मीर बैठे हुए चिन्ता में निमग्न है । सोच रहे थे-- जिस दिन मुंज का सिर मैने काटा, उसी दिन एक भारी बोझ मेरे सिर दिया गया, वह पितृव्य का दिया हुआ महाराणा-वंश का राज-तिलक है, उसका पूरा निर्वाह जीवन भर करना कर्तव्य है। चित्तौर का उद्धार करना ही मेरा प्रधान लक्ष्य है । पर देखू ईश्वर कैसे इसे पूरा करता है । इस छोटी-सी सेना से, यथोचित धन का अभाव रहते, वह क्योंकर हो सकता है। रानी मुझे चिन्ताग्रस्त देखकर यही समझती है कि विवाह ही मेरे चिन्तित होने का कारण है। मै उसकी ओर देखकर मालदेव पर कोई अत्याचार करने पर संकुचित होता हूँ। ईश्वर की कृपा से एक पुत्र भी हुआ, किन्तु मुझे नित्य चिन्तित देखकर रानी पिता के यहां चली गयी है । यद्यपि देवता-पूजन करने के लिये ही वहां उनका जाना हुआ है, किन्तु मेरी,उदासीनता भी कारण है । भगवान एकलिंगेश्वर कैसे इस दुःसाध्य कार्य को पूर्ण करते है, यह वही जानें ।

इसी तरह की अनेक विचार-तरंगें मानस में उठ ही थीं। संध्या की शोभा सामने की गिरि-श्रेणी पर अपनी लीला दिखा रही है, किंतु चिंतित हम्मीर को उसका आनंद नहीं। देखते-देखते अंधकार ने गिरिप्रदेश को ढंक लिया । हम्मीर उठे, वैसे ही द्वारपाल ने आकर कहा---महाराज विजयी हों। चित्तौर से एक सैनिक, महारानी का भेजा हुआ, आया है।