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थोड़ी ही देर मे सैनिक लाया गया और अभिवादन करने के
बाद उसने एक पत्र हम्मीर के हाथ में दिया । हम्मीर ने उसे लेकर सैनिक को बिदा किया, और पत्र पढ़ने लगे---
प्राणनाथ जीवनसर्वस्व के चरणों में
कोटिशः प्रणाम । देव ! आपकी कृपा ही मेरे लिये कुशल है । मुझे यहां आये इतने दिन हुए, किन्तु एक बार भी आपने पूछा नहीं । इतनी उदासीनता क्यों ? क्या, साइस में भरकर जो मुझे आपने स्वीकार किया, उसका प्रतिकार कर रहे है ? देवता ! ऐसा न चाहिये । मेरा अपराध ही क्या ? मै आपका चिन्तित मुख नहीं देख सकती,इसीलिए कुछ दिनों के लिए यहां चली आयी हूँ, किन्तु बिना उस मुख के देखे भी शान्ति नहीं । अब कहिये, क्या करूं ? देव ! जिस भूमि की दर्शनाभिलाषा ने ही आपको मुझसे ब्याह करने के लिये बाध्य किया, उसी भूमि में आने से मेरा हृदय अब कहता है कि आप ब्याह करके नहीं पश्त्ताप कर रहे है, किन्तु आपकी उदासीनता केवल चित्तौर-उद्धार के लिये है। में इसमें बाधा-स्वरूप आपको दिखाई पड़ती हूँ। मेरे ही स्नेह से आप पिता के ऊपर चढ़ाई नहीं कर सकते, और पितरों के ऋण से उद्धार नहीं पा रहे है।इस जन्म में तो आपसे उद्धार नही हो सकती और होने की इच्छा भी नहीं---कभी, किसी भी जन्म में। चित्तौर-अधिष्ठात्री देवी ने मुझे स्वप्न में जो आज्ञा दी है, मै उसी कार्य के लिये रुकी हूँ।पिता इस समय चित्तौर में नहीं है, इससे यह न समझिये कि मैं आपको कादर समझती हूँ, किंतु इसलिये कि युद्ध में उनके न रहने से उनकी कोई शारीरिक क्षति नहीं होगी। मेरे कारण जिसे आप बचाते है, वह बात बच जायगी सर्दारों से रक्षित चित्तौर । दुर्ग के वीर सैनिकों के साथ सम्मुख युद्ध में इस समय आप विजय प्राप्त कर सकते है। मुझे निश्चय है, भवानी आपकी रक्षा करेगी।