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अशोक
 


पथ का अनुकरण करती है, उसे बहुत ही भली मालूम हो रही है। पर युवक को यह नहीं मालूम कि उसकी सरल दृष्टि और सुन्दर अवयव से विवश होकर एक रमणी अपने परम पवित्र पद से च्युत होना चाहती है।

देखो, उस लता-कुंज में, पत्तियों की ओट में, दो नीलमणि के, समान कृष्ण-तारा चमककर किसी अदुम आश्चर्य का पता बता रहे है। नहीं-नहीं, देखो, चन्द्रमा में भी कहीं तारा रहते है ? वह तो किसी सुन्दरी के मुख-कमल का आभास है।

युवक अपने आनन्द में मग्न है । उसे इसका कुछ भी ध्यान नहीं है कि कोई व्याध उसकी ओर अलक्षित होकर वाण चला रहा है। युवक उठा, और उसी कुंज की ओर चला। किसी प्रच्छन्न शक्ति की प्रेरणा से वह उसी लता-कुंज की ओर बढ़ा । किन्तु उसकी दृष्टि वहां जब भीतर पड़ी, तो वह अवाक् हो गया। उसके दोनों हाथ आप जुट गये । उसका सिर स्वयं अवनत हो गया।

रमणी स्थिर होकर खड़ी थी। उसके हृदय में उद्वेग और शरीर मे कम्प था। धीरे-धीरे उसके होंठ हिले और कुछ मधुर शब्द निकले। पर वे शब्द स्पष्ट होकर वायुमण्डल में लीन हो गये । युवक का सिर नीचे ही था । फिर युवती ने अपने को सँभाला,और बोली---कुनाल, तुम यहां कैसे ? अच्छे तो हो ?

माताजी की कृपा से---उत्तर में कुनाल ने कहा ।

युवती मंद मुस्कान के साथ बोली---मै तुम्हें बहुत देर से यहां छिपकर देख रही हूँ।

कुनाल---महारानी तिष्यरक्षिता को छिपकर मुझे देखने की क्या आवश्यकता है ?

तिष्यरक्षिता---(कुछ कम्पित स्वर से) तुम्हारे सौन्दर्य से विवश होकर।

कुनाल---(विस्मित तथा भीत होकर) पुत्र का सौन्दर्य तो माता ही का दिया हुआ है।