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अशोक
 


साथी की ओर देखकर कहा---जाओ, इन बातों को कहकर, दूसरी आज्ञा लेकर जल्द आओ ।

अश्वारोही शीघ्रता से नगर की ओर चला । शेष सब लोग उसी स्थान पर खड़े थे।

थोड़ी देर में उसी ओर से दो अश्वारोही आते हुए दिखाई पड़े। एक तो वही था, जो भेजा गया था, और दूसरा उस प्रदेश का शासक था । समीप आते ही वह घोड़े पर से उतर पड़ा और कुनाल को अभिवादन करने के लिये बढ़ा । पर कुनाल ने रोककर कहा--बस, हो चुका,मैने आपको इसलिये कष्ट दिया है कि इन निरीह मनुष्यों की क्यों हिंसा की जा रही है ?

शासक---राजकुमार ! आपके पिता की आज्ञा ही ऐसी है, और आपका यह वेश क्यों है ?

कुनाल---इसके पूछने की कोई आवश्यकता नहीं, पर क्या तुम इन लोगों को मेरे कहने से छोड़ सकते हो ?

शासक---(दु:खित होकर) राजकुमार, आपकी आज्ञा हम कैसे टाल सकते है, (ठहरकर) पर एक और बड़े दुःख की बात है।

कुनाल---वह क्या ?

शासक ने एक पत्र अपने पास से निकालकर कुनाल को दिखलाया । कुनाल उसे पढ़कर चुप रहा, और थोड़ी देर के बाद बोला---तो तुमको इस आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिये ।

शासक---पर, यह कैसे हो सकता है ?

कुनाल---जैसे हो, वह तो तुम्हें करना ही होगा।

शासक---किंतु राजकुमार, आपके इस देव-शरीर के दो नेत्र- रत्न निकालने का बल मेरे हाथों में नहीं है। हां, मैं अपने इस पद को त्याग कर सकता हूँ।

कुनाल---अच्छा, तो तुम मुझे इन लोगों के साथ महाराज के समीप भेज दो।