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छाया
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उन्हीं से काम निकल जाय, रसना को बोलना न पड़े; किन्तु करें क्या ? वह हो नहीं सकता था। बादशाह ने एक तरफ देखकर कहा---गुलाम कादिर !

कादिर अपने कमरे में कपड़े पहनकर तैयार है. केवल कमरबन्द में एक जड़ाऊ दस्ते का कटार लगाना बाकी है, जिसे बादशाह ने उसे प्रसन्न होकर दिया है। कटार लगाकर एक बार बड़े दर्पण मे मुंह देखने की लालसा से वह उस ओर बढ़ा। दर्पण के सामने खड़ा होकर उसने देखा, अपरूप सौन्दर्य ! किसका ? अपना ही । सचमुच कादिर की दृष्टि अपनी आंखो पर से नहीं हटती। मुग्ध होकर वह अपना रूप देख रहा है !

उसका पुरुषोचित सुन्दर मुख-मंडल तारुण्य-सूर्य के आतप से आलोकित हो रहा है । दोनों भरे हुए कपोल प्रसन्नता से बार-बार लाल हो आते है, आंखें हँस रही है । सृष्टि सुन्दरतम होकर उसके सामने विकसित हो रही है।

प्रहरी ने आकर कहा---जहांपनाह ने दर्बार में याद किया है ।

कादिर चौक उठा और उसका रंग उतर गया। वह सोचने लगा कि उसका रूप और तारुण्य कुछ नहीं है, किसी काम के नहीं। मनुष्य की सारी सम्पत्ति उससे जबर्दस्ती छीन ली गयी है ।

कादिर का जीवन भार हो उठा । निरभ्र गगन में पावस-घन घिर उठे । उसका प्राण तलमला उठा, और वह व्याकुल होकर चाहता था कि दर्पण फोड़ दे ।

क्षण-भर में सारी प्रसन्नता मिट्टी में मिल गयी । जीवन दुःसह हो उठा । दांत आपस में घिस उठे और कटार भी कमर से निकलने लगी।

कादिर कुछ शान्त हुआ। कुछ सोचकर धीरे-धीरे दर्बार की ओर चला । बादशाह के सामने पहुँचकर यथोचित अभिवादन किया ।

शाह०---कादिर ! इतनी देर तक कहां रहा ?