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गुलाम
 


कादिर---जहांपनाह ! गुलाम की खता माफ हो।

शाह०---(हँसते हुए) खता कैसी कादिर ?

कादिर---(जलकर) हुजूर, देर हुई ।

शाह०--- अच्छा, उसकी सजा दी जायगी। कादिर---(अदब से) लेकिन हुजूर, मेरा भी कुछ अर्ज है।

बादशाह ने पूछा--- क्या ?

कादिर ने कहा---मुझे यही सजा मिले कि मै कुछ दिनों के लिये देहली से निकाल दिया जाऊँ ।

शाहआमल ने कहा---सो तो बहुत बड़ी सजा है कादिर, ऐसा नहीं हो सकता । मै तुम्हें कुछ इनाम देना चाहता हूँ, ताकि वह यादगार रहे, और तुम फिर ऐसा कुसूर न करो।

कादिर ने हाथ बांधकर कहा---हुजूर ! इनाम में मुझे छुट्टी ही मिल जाय, ताकि कुछ दिनों तक मैं अपने बूढ़े बाप की खिदमत कर सक।

शाहआलम---(चौंककर) उसकी खिदमत के लिये मेरी दी हुई जागीर काफी है। सहारनपुर में उसकी आराम से गुजरती है।

कादिर ने गिड़गिड़ाकर कहा---लेकिन जहांपनाह, लड़का होकर मेरा भी कोई फर्ज है ?

शाहआलम ने कुछ सोचकर कहा—--अच्छा तुम्हे रुख्सत मिली और यादगार की तरह तुम्हें एक-हजारी मनसब अता किया जाता है, ताकि तुम वहां से लौट आने में फिर देर न करो।

उपस्थित लोग 'करामात','हुजूर का एकबाल और बलन्द हो' को धुन मचाने लगे। गुलाम कादिर अनिच्छा रहते उन लोगों का साथ देता था, और अपनी हार्दिक प्रसन्नता प्रकट करने की कोशिश करता था।