पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/६३

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1 जगद्विनोद । (६३) लैनकरै चुबन पसार प्रेमपाता है ॥ कहै पदमाकर त्यों चातुरी चरित्र करै, चित्रकरै सोहे जो विचित्र रतिराताहै ॥ हाव करै भाव करै विविध विभाव करै, बूझौ पौन एतेपै अबूझनको भ्राता है। ऐसी परबीनको कियो जो यह पुरुष तौ, वीस बिसे जानी महामूरख विधाता है ॥१९॥ दोहा--करि उपाय हारी जु मैं, सन्मुख सैन बनाय । समुझत प्यौनइतेहुपै, कहाकीजियतु हाय ॥२०॥ जाहि जबहिं आलंबिकै, उर उपजत रसभाव । आलम्बन सुविभावकहि, वर्णत सब कविराव २१॥ आलम्बन शृङ्गारके, कहे भेद समुझाय । सकल नायकानायकहु, लक्षण लक्षिबनाय ॥२२॥ वर्णत आलम्बनहि में, दरशन चार प्रकार । श्रवण चित्रशुभस्वममें, पुनिपरतक्षनिहार ॥२३॥ इन चारिहु दरशननके, लक्षण नाम प्रमान । तिनके कहत उदाहरण, समझहुसबैसुजान ॥२४॥ श्रवण दर्शन-सवया ॥ राधिकासों कहिआई जुतूसखि सांवरेकी मृदुमूरति जैसी । वाछिनते पदमाकर ताहि सुहात कछु नबिसूरति वैसी ॥ मानहु नीर भरीधनकी घटा आँखिनमें रही आनिउनैसी: नई सुनि कान्हकथा जुबिलोकहिगीतबहोइगी कैसी ॥२५॥