पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/६७

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. जगदिनोद । (६७) स्वांग ठानि ठानै जु कछु, हांसी वचन विनोद । कह्यो विदूषक सों सखा, कविन मानमदमोद१३॥ अथविदूषकका उदाहरण-सवैया ।। कागकेद्योसगोपालनग्वालिनीकैइकठानिकियो मिसिकाऊ ॥ त्योपदमाकरझोरि झमाइ सु दौरीसबै हरि पै इकहाऊ ॥ ऐसे समै बहै भीत विनोदी सुनेसुक नैनकिये डरपाऊ ॥ लै हर मूसर ऊसरढे कहूं आयो तहांबनिकै बलदाऊ ॥ दोहा-कटि हलाय हलकाय कछु, अद्भुत ख्याल बनाय । अस को जाहि न फागमें,परगट दियो हँसाय ॥१५॥ इति सखा । अथ सखी ॥ दोहा--जिनसों नायक नायिका, राख कछु न दुराव । सखी कहावै तेसुघर, सांचो सरल सुभाव ॥ १६ ॥ काज सखिनके चार ये, मण्डन शिक्षा दान । उपालम्भ परिहास पुनि,वर्णत सुकवि सुजान ॥१७॥ मण्डन तियहि शृंगारिबो, शिक्षा विनय विलास । उपालम्भ सो उरहनो, हँसी करब परिहास ॥१८॥ मण्डनका उदारहण-सवैया ॥ मांगसवारिशेंगारिसुबारनि बेनी गुहीजु छुबानिलोंछावै । त्यों पदमाकर याविधि औरहूसाजिशृंगारजु श्यामको भावै । रोझै मखीलखिराविकाकोरगजाभजो गहिनो पहिरावै ।