पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/७०

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(७०) जगद्विनोद। दोहा-काल्हि कालिन्दीके निकट, निरखि रहेही जाहिं । आई खेलन फाग वह, तुमहींसों चितचाहिं ॥३०॥ कढुक मधुर कछुकछु परुष, कहै बचन जो आय । ताहीको कवि कहत हैं, मध्यम दूती गाय ॥३१॥ अथ मध्यम दूतीको उदाहरण-सवैया । बैनसुधाके सुधासी हँसी वसुधामें सुधाकी सटाकरती है । त्यो पदमाकर बारहिंबार सबार बगारि लटा करती है ॥ बीरविचारे बटोहिनपै इककाजही तो यों लटा करती है । विज्जुछटामी अटापै चढ़ी सुकटाक्षनिघालिकटा करती है । दोहा-कुञ्ज भवनलों भावते, कैसे सुकहि सु आय । जावक रँग भारनि भटु, मगमें धरति न पाय३३॥ कैपियसों के तियहिसों, कहै परुषही बैन । अधम दूविका कहत हैं, ताहीसों मति ऐन ॥३४॥ अब मध्यमाको उदाहरण-सवैया ॥ ऐहै न फेर गई जो निशातनु पौवन है धनकी परछाहीं। त्यों पदमाकर क्यों न मिलै उठि योनिबहैगोननेहसदाहीं। कौन सयानि जोकान्ह सुजानसोठानिगुमान रहीमनमाहीं । एकै जु कञ्जकली न खिली तो कहोकहूं भौंरको ठोरहै नाहीं। दोहा-कै गमान गुणरूपके तै न ठान गुणमान । मनमोहन चितचढिरही, तोसीकिती न आन॥३६॥ दै दूतीके काज ये, विरह निवेदन एक । संघट्टन दूजी कह्यो, सुकवि न सहितविवेक ॥३७॥