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जनमेजय का नाग-यज्ञ

व्यास―वत्स माणवक, विजय एक ही प्रकार की नही है, और उसका एक ही लक्षण नहीं है। परिणाम में देखोगे कि तुम श्रेयस्कर मार्ग पर थे। यदि प्रतिहिंसा वश तुमने नागो का साथ दिया था, तो उस अलौकिक प्रभुता ने उसका भी कुछ दूसरा ही तात्पर्य रक्खा था। आज यदि तुम वहाँ न होते, कोई दूसरा नाग होता, तो इस पौरव कुल वधू को क्या अवस्था होती? क्या उस सम्राट् पर यह तुम्हारी विजय नहीं है, जिसके भाइयो ने तुम्हें पीटा था? तुम्हारे सत्य ने ही तुम्हें विजय दिलाई है।

सरमा―आर्य, श्री चरणों की कृपा से मेरी सारी भ्रान्ति दूर हो गई; किन्तु एक अवशिष्ट है।

व्यास―वह क्या?

सरमा―महारानी वयुष्टमा का परिणाम चिन्ता का विषय है।

व्यास―है अवश्य, किन्तु कोई भय नहीं। विश्वात्मा सब का कल्याण करता है।

आस्तीक―तब क्या आज्ञा है?

व्यास―ठहरो; इस आश्रम मे सब प्राकृतिक साधन पर्याप्त हैं। तुम लोग यहीं रहो। जब तुम लोगों के जाने की आवश्यकता होगी, तब मैं स्वयं भेज दूँँगा। अभी तुम लोग विश्राम करो।

[ वेदव्यास जाते हैं ]
 

वपुष्टमा―बहन सरमा, मुझे क्षमा करो। मैंने तुम्हारा बड़ा अनादर किया था। आज मुझे तुम्हारे सामने आँख उठाते लज्जा आतो है। तुमने मुझ पर जैसी विजय पाई है, वह अकथनीय है।

सरमा―नहीं महारानी, वह आपके सिंहासन का आवेश