पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/११६

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तीसरा अङ्क―सातवाँ दृश्य

मनसा―वत्सगण, अब और जन क्षय कराने की आवश्यकता नही है। वन्दी तक्षक को जनमेजय कभी का जला देता; किन्तु सुना है, उसकी रानी का पता नही है; इसलिये अभी कुछ नहीं हुआ।

नाग―तो क्या नागराज जलाए जायँ, और लोग यहाँ पड़े पड़े आनन्द करें! धिक्कार है!

मनसा―वत्स, उत्तेजित न हो।

वासुकि―नहीं मनसा, अब मत रोको अब इस भग्न गृह को बचा रखने से क्या लाभ? इसे गिर जाने दो। दो चार ठूँठ वृक्षों पर इतनी ममता क्यो? इन्हें सूख जाने दो। जब हरा भरा कानन जल गया, तब इन्हें भी जल जाने दो। चलो वीरो, जो लोग युद्ध के योग्य हैं, वे सब एक बार निर्वाणोन्मुख दीप की भाँति जल उठें। यदि औरो को न जला सकेंगे, तो स्वयं ही जल जायँगे। सारी कथा ही समाप्त हो जायगी।

नाग―हम प्रस्तुत है।

वासुकि―तो फिर चलो।

मनसा―क्यो भाई, क्या तुम मेरी बात न सुनोगे?

वासुकि―बहन, तुम्हारी बात सुनने के कारण ही आज तक यह सब हुआ। अब तुम्हारे हृदय में स्त्री सुलम करुणा का उद्रेक हुआ है; इसीलिये तुम मुझे दूसरी ओर फेरना चाहती हो। यही तो स्त्रियों की बात है। एक भयानक क्रूरता को ठोकर मारकर जगा चुकी हो; और अब फिर उसे थपकी देकर सुला