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जनमेजय का नाग-यज्ञ

सबको इसी यज्ञकुण्ड मे जला दूँ। किन्तु नही, मैं तुम लोगों को दूसरा दण्ड देता हूँ। जाओ, तुम लोग मेरा देश छोड़कर चले जाओ। आज से कोई क्षत्रिय अश्वमेध आदि यज्ञ नही करेगा। तुम सरोखे पुरोहितो की अब इस देश में आवश्यकता नहीं। जाओ, तुम सब निर्वासित हो।

सोमश्रवा―अच्छी बात है; तो जाता हूँ राजन्!

जनमेजय―हाँ हाँ! जाना ही पड़ेगा। सब को निकल जाना पड़ेगा। परन्तु उत्तङ्क! तुम्हारा एक काम अवशिष्ट है।

उत्तङ्क―वह क्या?

जनमेजय―स्मरण है, किसने मुझे इस कार्य्य के लिये उत्तेजित किया था।

उत्तङ्क―मैंने।

जनमेजय―उस दिन हमने कहा था कि ‘अश्वमेध पीछे होगा, पहले नागयज्ञ होगा।’ सम्भव है कि उस समय वह केवल एक साधारण सी बात रही हो। परन्तु आज वही काम होगा।

उत्तङ्क―राजन् वह तो हो चुका है। तक्षशिला विजय में कितने ही नाग जलाए जा चुके हैं।

जनमेजय―परन्तु हवन कुण्ड में नहीं! अश्वमेध की विधि चाहे जिसकी कही हो, नागयज्ञ आज सचमुच होगा; और वह भी मेरी बनाई हुई बिधि से। सोमश्रवा से पूछो कि वे इसके आचार्य्य होगे या नहीं।