पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/१२

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पहला अङ्क

पहला दृश्य

स्थान―कानन

[मनसा और सरमा]

सरमा―बहन मनसा, मैं तो आज तुम्हारी बात सुनकर चकित हो गई!

मनसा―क्यों? क्या तुमने यही समझ रक्खा था कि नाग जाति सदैव से इसी गिरी अवस्था में है? क्या इस विश्व के रंगमंच पर नागों ने कोई स्पृहणीय अभिनय नहीं किया? क्या उनका अतीत भी उनके वर्तमान की भाँति अन्धकार-पूर्ण था? सरमा, ऐसा न समझो। आर्यों के सदृश उनका भी विस्तृत राज्य था, उनकी भी एक संस्कृति थी।

सरमा―जब मैंने प्रभास के विप्लव के बाद अर्जुन के साथ आते हुए नागराज वासुकि को आत्म-समर्पण किया था, तब भी इस साहसी और वीर जाति पर मेरी श्रद्धा थी। श्रीकृष्ण की उस अपूर्व प्रतिभा ने मेरी नस नस में मनुष्य मात्र के प्रति एक अविचल प्रीति और स्वतंत्रता भर दी थी। शूद्र गोप से लेकर ब्राह्मण तक की समता और प्राणी मात्र के प्रति समदर्शी होने की अमोघ वाणी उनके मुख से कई बार सुनी थी। वही मेरे उस आत्मसमर्पण का कारण हुई।