पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/१२७

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जनमेजय का नाग-यज्ञ

फिर भी तुमने यज्ञ किया ही। किन्तु जानते हो, यह मानवता के साथ ही साथ धर्म का भी क्रम विकास है। यज्ञो का कार्य हो चुका। बालक सृष्टि खेल कर चुकी। अब परिवर्तन के लिये यह काण्ड उपस्थित हुआ है। अब सृष्टि को धर्म कार्यों मे विडम्बना को आवश्यकता नहीं। सरस्वती और यमुना के तट पर शुद्ध और समीप ले जाने वाल उपनिषद् और आरण्यक सम्वाद हो रहे है। इन्हीं माहात्मा ब्राह्मणो की विशुद्ध ज्ञान धारा से यह पृथ्वी अनन्त काल तक सिन्चित होगी; लोगों को परमात्मा की उपलब्धि होगी; लोक मे कल्याण और शान्ति का प्रचार होगा। सब लोग सुखपूर्वक रहेगे।

सब―भगवान् की वाणी सत्य हो।

व्यास―विश्वात्मा का उत्थान हो। प्रत्येक हृत्तन्त्री मे पवित्र पुण्य के सामगान की मीड़े लहरा उठें।

[ नेपथ्य में गान ]

जय हो उसकी, जिसने अपना विश्व रूप विस्तार किया।
आकर्षण का प्रेम नाम से सव में सरल प्रचार किया॥

जल, थल, नभ का कुहक बन गया जो अपनी ही लीला से।
प्रेमानन्द पूर्ण गोलक को निराधर आधार दिया॥

हम सब में जो खेल कर रहा अति सुन्दर परछाई सा।
आप छिप गया आकर हममें, फिर हमको आकार दिया॥

पूर्णानुभव कराता है जो 'अहमिति' से निज सत्ता का।

'तू मैं ही हूँ' इस चेतन का प्रणव मध्य गुञ्जार किया॥
[ यवनिका पतन ]