पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/१७

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जनमेजय का नाग-यज्ञ

अर्जन―फिर वही पहेली! यह बताओ कि इस समय हम क्या करें! क्या इन पेड़ो पर बैठकर इन्हे सिहासन समझ लें? क्या गीदड़ो और लोमड़ियो को अपनी प्रजा, तथा भयानक सिहो को अपना शत्रु समझ कर उनसे सन्धि-विग्रह करें; और सदा इन नागो के छिपे आक्रमणो से क्षुब्ध रहे?

श्रीकृष्ण―तब तो तुम्हारे जैसे सैकड़ो अर्जुन केवल इस खाण्डव का भी उद्धार न कर सकेंगे। अजी इसमें एक ओर से आग लगा दो! अग्निदेव को वसा और मांस को आहुतिया से अजोर्ण हो गया है। उन्हे प्रकृत आहार की आवश्यकता है। श्वापद-संकुल जंगलो को सुन्दर जनपदो मे परिवर्तित कर देना उन्ही का काम है।

अर्जुन―अरे, यह क्या कह रहे हो! अभी तो विश्व भर की एकता का प्रतिपादन कर रहे थे, और अभी यह अनाचार! इतने प्राणियो की हिसा, और इन जंगलियो का निर्वासन सिखाने लगे! क्या यहो विवेक है?

श्रीकृष्ण―( हँसकर )―बलिहारी इस बुद्धि को! अजो जो उन विपक्षी द्वन्द्वो के पोषक हैं, जो मिथ्या विश्वास के सहायक हैं, क्या उनको समझा कर, उनके साथ शिष्टाचार करके अपना प्रयत्न सफल कर सकते हो? यदि उन्हे समता में ले आना है, तो जो जिस योग्य हों, उनसे वैसा ही संघर्ष करना पड़ेगा। जिनमे थोड़ी कसर है, वे हम से ईर्ष्या करके ही हमारे वरावर पहुँँचेंगे। जो बहुत पिछड़े हुए हैं, उन्हे फटकारने से ही काम चलेगा। जो