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जनमेजय का नाग-यज्ञ

दामिनी―तुम्हारा सिर होता है!

उत्तङ्क―हैं-हैं, आप रुष्ट क्यों होती हैं?

दामिनी―नहीं उत्तङ्क, भला मैं तुमसे रुष्ट हो सकती हूँ! वाह, यह भी अच्छी कही। अच्छा लो, तुम इन्हीं फूलों की एक माला बनाओ; और तब तक मैं कुछ गाऊँ।

उत्तङ्क―जो आज्ञा।

[ माला बनाने लगता है ]
 

दामिनी―(गाती है)

अनिल भी रहा लगाए घात।

मैं बैठी दुम-दल समेट कर, रही छिपाए गात।
खोल कर्णिका के कपाट वह निधड़क आया प्रात।
बरओरी रस छीन ले गया, करके मोठी बात। अनिल०।

(उत्तङ्क को देखती हुई)
तुम्हारी माला―!

उत्तङ्क―वाह! आप गा चुकी? इधर मेरी माला भी बन गई; देखिए।

दामिनी―(माला देखती हुई) हाँ जी, तुम तो इस विद्या मे सिद्ध-हस्त हो; किन्तु इसे मुझे पहना दो। नहीं नहीं, मेरे जूड़े में लगा दो। मुझसे नहीं लगेगा।

उत्तङ्क―यह तो मुझे भी नहीं आता।

[ दामिनी उसका हाथ पकड़कर बताती है। उत्तङ्क जूड़े में माला लगाता है। ] उत्तङ्क―अब ठीक लगी; अब यह नही गिरने की। ऐं! आप का शरीर न जाने क्यो काँप रहा है।