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जनमेजय का नाग-यज्ञ

करो। जिनको रसना की तृप्ति के लिये अनेक प्रकार के भोजनों की भरमार होती है, वे पेट की ज्वाला नहीं समझते। मैंने न्याय की प्रार्थना की, तो उन्होंने एक अपमान और जोड़ दिया। मैंने नाग परिणाय किया था। यह भी मुझ पर एक अपराध लगा! हे भगवन्! मेरे अभिमान का यह फल!

माणवक―फिर तुमने मुझे प्रतिशोध लेने से क्यों रोक दिया?

सरमा―हत्या! तू सरमा का पुत्र होकर गुप्त रूप से हत्या करना चाहता था; पर यह कलङ्क मैं नही सह सकती थी। तू उनसे लड़कर वहीं मर जाता या उन्हे मार डालता, यह मुझे स्वीकार था। परन्तु―उसके लिये तू अभी बिलकुल बच्चा है।

माणवक―दुर्बलो के पास और उपाय हो क्या है? क्या तब मुझे शान्ति न मिलेगी जब तुम हस्तिनापुर के राजमन्दिर के वातायनों की ओर दीनता से ताकती रहोगी?

सरमा―नहीं बेटा! मैं इस अपमान का बदला लूँँगी; किन्तु सहायता के लिये लौटकर नागकुल में न जाऊँगी।

माणवक―तब फिर प्रतिशोध कैसे सम्भव है? माँ, मेरे हृदय मे दारुण प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक रही है। घमण्डियों के वे वक्र विलोचन बरछी की तरह लग रहे हैं। माँ, मुझे अत्या- चार का प्रतिशोध लेने दो। मैं पिता के पास जाऊँगा। मुझे आज्ञा दो। मैं मनसा के हाथो का विषाक्त अस्त्र बनूँ; उसकी भीषण कामना का पुरोहित बनूँ। क्रूरता का ताण्डव किए बिना मै न जी सकँगा। मै आत्म-घात कर लूँगा!

[ रोने लगता है ]