पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/४९

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सातवाँ दृश्य
स्थान-कानन
[ धनुष पर वाण चढ़ाए हुए जनमेजय का प्रवेश। ]

जनमेजय―कहाँ गया? अभी तो इधर ही आया था!

[ भद्रक का प्रवेश ]

भद्रक―जय हो देव! मृग अभी इधर नही आया; उधर ही गया।

जनमेजय―भद्रक, तुम बता सकते हो कि किस ओर गया?

भद्रक―प्रभो, तनिक सावधान हो जाइए, अभी पता चल जाता है।

[ दोनों चुपचाप देखते और सुनते है ]
 

जनमेजय―(धीरे से) अजी देखो, वह उस झाड़ी मे छिपा हुआ सा जान पड़ता है।

भद्रक―नही पृथ्वीनाथ, ऐसी जगह मृग नहीं छिपते।

जनमेजय―चुप रहो। निकल जायगा।

[ वाण चलाता है। झाड़ी में क्रन्दन और धमाका। ]

जनमेजय―यह क्या?

भद्रक―क्षमा हो देव, मनुष्य का सा स्वर सुनाई देता है।

[ दोनों झपटे हुए जाते है और घायल ऋषि को उठा लाते है। ]