पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/५४

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दूसरा अङ्क―पहला दृश्य
[ एक ओर से जनमेजय का प्रवेश। दोनों को देखकर जनमेजय आड़ में खडा हो जाता है। ]

जनमेजय―( स्वगत ) मनुष्य क्या है? प्रकृति का अनुचर, और नियति का दास, या उस की क्रोड़ा का उपकरण! फिर क्यो वह अपने आपको कुछ समझता है? आज इस आश्रम के महर्षि से इसका रहस्य जानना चाहिए! अहा! कैसा पवित्र स्थान है! और यह देवद्वन्द्व भी कैसा मनोहर है!

( नेपथ्य में सङ्गीत )

जीने का अधिकार तुझे क्या, क्यों इसमें सुख पाता है।
मानव, तूने कुछ सोचा है, क्यों आता, क्यों जाता है॥

आद्य अविद्या कर्म हुआ क्यों, जीव स्त्रवश तव कैसे था।
महाशून्य के पट में पहला चित्रकार क्यों आता है॥

शुद्ध नाद था बड़ा सुरीला, कोई विकृति न थी उसमें।
कौन कल्पना करके उसमें मोंड़ लगाकर गाता है॥

कल्प कल्प की भाँति दुख की क्षण भर का सुख भला लगा।
असिधारा पर धरा हुआ सुख, उससे कैसा नाता है॥

दुख ने क्या दुख दिया तुझे, कुछ इसका कभी विचार किया।
चौक उठा तू झूठे दुख पर, कुछ भी तुझे न आता है॥

कारण, कर्म न भिन्न कही है, कर्म! कर्म चेतनता है।
खेल खेलने आया है तू, फिर क्यों रोने जाता है॥

इस जीवन को भिन्न मानकर क्षण क्षण का विभाग करता।
लीला से तू दुखी वन गया, लीजा से सुख पाता है॥

तू स्वामी है, तू केवल है, स्वच्छ सदा तृ निर्मल है।

जो कुछ आवे, करता चल तू, कहीं न आता जाता है॥