पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/८८

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तीसरा अङ्क―पहला दृश्य

आस्तीक―सुनो!

[कान लगता है]
 

सोमश्रवा―क्या?

आस्तीक―यहाँ कोई उपदेश हो रहा है। मन को थोड़ा शान्त करो, सब स्पष्ट सुनाई देने लगेगा।

[सब चुप हो जाते है]
 

आस्तीक―(आप ही आप) बुला लो, बुला लो, उस वसन्त को, उस जङ्गलो वसन्त को, जो महलो मे मन को उदास कर देता है, जो मन में फूलों के महल बना देता है, जो सूखे हृदय की धूल में मकरन्द सीचता है। उसे अपने हृदय मे बुला लो! जा पतझड़ करके नई कोपल लाता है, जो हमारे कई जन्मो की मादकता मे उत्तजित होकर इस भ्रान्त जगत् में वास्तविक बात का स्मरण करा देता है, जो कोकिल के सदृश सस्नेह, सकरुण आवाहन करता है, जिसमे विश्व भर के सम्मिलन का उल्लास स्वतः उत्पन्न होता है, एक आकर्षण सब को कलेजे से लगाना चाहता है, उस बसन्त को, उस गई हुई निधि को, लौटा लो। काँटों मे फूल खिले, विकास हो, प्रकाश हो, सौरभ खेल खेले! विश्व मात्र एक कुसम स्तवक सदृश किसी निष्काम के करो मे अर्पित हो। आनन्द का रसीला राग गूँँज उठे। विश्व भर का क्रन्दन कोकिल को काकली में परिणत हो जाय।

व्यास―(आँख खोलते हुए) नमो रुचाय ब्राह्मये।

सोमश्रवा―आर्य के श्रीचरणो मे उग्रश्रवा का पुत्र सोमश्रवा प्रणाम करता है।