पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/९४

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तीसरा अङ्क—दूसरा दृश्य

उसे दे दो करुणा के हाथ,
सभी हो गया तुम्हारा, अस्तु।
लोग जब रोने लगते हैं,
तभी हम हँसने लगते हैं।

वपुष्टमा—सचमुच कलिका, जब एक रोता है, तभी तो दूसरे को हँसी आती है। यह संसार ऐसा ही है।

कलिका—स्वामिनी! केवल दम्भ, और कुछ नहीं! साधारण मनुष्यता से कुछ ऊँचे उठा लेनेवाला दम्भ, हृदय को बड़े वेग से पटक देता है, जिससे वह चूर हो जाता है! महादेवी, चूर होकर, मार्ग की धूल में मिलकर, समता का अनुभव करते हुए चरणचिह्नो की गोद मे लोटना भी एक प्रकार का सुख है, जो सब की समझ में नहीं आता!

वपुष्टमा—हां! इच्छा होने पर भी मैं ऐसा नहीं कर सकती!

[सोमश्रवा और उत्तङ्क का प्रवेश]

वपुष्टमा—पौरव कुल बधू का आर्य के चरणो में प्रणाम है।

उत्तङ्क—कल्याण हो, सौभाग्यवती हो, वीर प्रसूति हो। श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन ये तीनों पाण्डव कुल के महावीर विजयोपहार के साथ लौट आए। अश्व भी गान्धार तथा उत्तर-कुरु विजय करने के लिये प्रेरित किया गया है। स्वयं सम्राट् भी इस बार अश्व की रक्षा के लिये आगे बढ़ेंगे।

वपुष्टमा—आर्य के रहते हुए प्रबन्ध में कोई त्रुटि न होगी। कृती देवरो की सम्वर्धना करने के लिये मैं यज्ञशाला में चलती हूँ। किन्तु प्रभो, यह यज्ञ कैसा होगा?