पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

________________

"अच्छा लौट आवेगा–चिन्ता न कर। मैं घर जाती हूँ।" शीरी ने सिर हिला दिया। जुलेखा चली गई। __ जब पहाड़ी आकाश में सन्ध्या अपने रंगीले पट फैला देती, जब विहंग केवल कलरव करते पंक्ति बाँधकर उड़ते हुए गुंजान झाड़ियों की ओर लौटते और अनिल में उनके कोमल परों से लहर उठती, जब समीर अपनी झोंकेदार तरंगों में बार-बार अँधकार को खींच लाता, जब गुलाब अधिकाधिक सौरभ लुटाकर हरी चादर में मुँह छिपा लेना चाहते थे; तब शीरीं की आशा-भरी दृष्टि कालिमा से अभिभूत होकर पलकों में छिपने लगी। वह जागते हुए भी एक स्वप्न की कल्पना करने लगी। हिन्दुस्तान के समृद्धिशाली नगर की गली में एक युवक पीठ पर गट्ठर लादे घूम रहा है। परिश्रम और अनाहार से उसका मुख विवर्ण है। थककर वह किसी के द्वार पर बैठ गया है। कुछ बेचकर उस दिन की जीविका प्राप्त करने की उत्कंठा उसकी दयनीय बातों से टपक रही है, परन्तु वह गृहस्थ कहता है-"तुम्हें उधार देना हो तो दो, नहीं तो अपनी गठरी उठाओ। समझे आगा?" युवक कहता है-"मुझे उधार देने की सामर्थ्य नहीं।" "तो मुझे भी कुछ नहीं चाहिए।" । शीरीं अपनी इस कल्पना से चौंक उठी। काफिले के साथ अपनी सम्पत्ति लादकर खैबर के गिरि-संकट को वह अपनी भावना से पदाक्रान्त करने लगी। उसकी इच्छा हुई कि हिन्दुस्तान के प्रत्येक गृहस्थ के पास हम इतना धन रख दें कि वे अनावश्यक होने पर भी उस युवक की सब वस्तुओं का मूल्य देकर उसका बोझ उतार दें, परन्तु सरला शीरीं निस्सहाय थी। उसके पिता एक क्रूर पहाड़ी सरदार थे। उसने अपना सिर झुका लिया। कुछ सोचने लगी। सन्ध्या का अधिकार हो गया। कलरव बन्द हुआ। शीरी की साँसों के समान समीर की गति अवरुद्ध हो उठी। उसकी पीठ शिला से टिक गई। दासी ने आकर उसको प्रकृतिस्थ किया। उसने कहा-"बेगम बुला रही हैं। चलिए मेंहदी आ गई है।" महीनों हो गए। शीरी का ब्याह एक धनी सरदार से हो गया। झरने के किनारे शीरी के बाग में शवरी खींची है। पवन अपने एक-एक थपेड़े में सैंकड़ों फूलों को रुला देता है। मधुधारा बहने लगती है। बुलबुल उसकी निर्दयता पर क्रन्दन करने लगते हैं। शीरीं सब सहन करती रही। सरदार का मुख उत्साहपूर्ण था। सब होने पर भी वह एक सुन्दर प्रभात था। एक दुर्बल और लम्बा युवक पीठ पर एक गट्ठर लादे सामने आकर बैठ गया। शीरीं ने उसे देखा, पर वह किसी ओर देखता नहीं। अपना सामान खोलकर सजाने लगा। सरदार अपनी प्रेयसी को उपहार देने के लिए काँच की प्याली और कश्मीरी सामान छाँटने लगा। शीरीं चुपचाप थी, उसके हृदय-कानन में कलरवों का क्रन्दन हो रहा था। सरदार ने दाम पूछा। युवक ने कहा-"मैं उपहार देता हूँ, बेचता नहीं। ये विलायती और कश्मीरी