पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१०३

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सामान मैंने चुनकर लिए हैं। इसमें मूल्य ही नहीं, हृदय भी लगा है। ये दाम पर नहीं बिकते।" सरदार ने तीक्ष्ण स्वर में कहा-"तब मुझे न चाहिए। ले जाओ, उठाओ।" "अच्छा, उठा ले जाऊँगा। मैं थका हुआ आ रहा हूँ, थोड़ा अवसर दीजिए, मैं हाथ-मुँह धो लूँ।" कहकर युवक भरभराई हुई आँखों को छिपाते, उठ गया। सरदार ने समझा, झरने की ओर गया होगा। विलम्ब हुआ, पर वह न आया। गहरी चोट और निर्मम व्यथा को वहन करते कलेजा हाथ से पकड़े हुए, शीरीं गुलाब की झाड़ियों की ओर देखने लगी, परन्तु उसकी आँसू-भरी आँखों को कुछ न सूझता था। सरदार ने प्रेम से उसकी पीठ पर हाथ रखकर पूछा-"क्या देख रही हो?" "एक मेरा पालतू बुलबुल शीत में की हिन्दुस्तान ओर चला गया था। वह लौटकर आज सवेरे दिखलाई पड़ा, पर जब वह पास आ गया और मैंने उसे पकड़ना चाहा, तो वह उधर कोहकाफ की ओर भाग गया।"-शीरी के स्वर में कम्पन था, फिर भी वे शब्द बहुत सम्हलकर निकले थे। सरदार ने हँसकर कहा-"फूल को बुलबुल की खोज? आश्चर्य है!" बिसाती अपना सामान छोड़ गया। फिर लौटकर नहीं आया। शीरी ने बोझ तो उतार लिया, पर दाम नहीं दिया।