पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१०४

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घीसू

का लमा और नजनता म कसी कुएँ पर नगर के बाहर बड़ी यारी वर-लहरी स गूँजयानेकलगती। घीसू को गाने का च का था। पर तु जब कोई न सुन,े वह अपनी बूट

अपने लए घ टता और आप ही पीता! जब उसक रसीली तान दो-चार को पास बुला लेती, वह चुप हो जाता। अपनी बटु ई म सब सामान बटोरने लगता और चल दे ता। कोई नया कुआँ खोजता, कुछ दन वहाँ अड् डा जमता। सब करने पर भी वह नौ बजे नं बाबू के कमरे म प ँच ही जाता। नं बाबू का भी वही समय था, बीन लेकर बैठने का। घीसू को दे खते ही वह कह दे ते—आ गए, घीसू! हाँ बाबू, गहरेबाज ने बड़ी धूल उड़ाई—साफे का लोच आते-आते बगड़ गया! कहते-कहते वह ाय: जयपुरी गमछे को बड़ी मीठ आँख से दे खता और नं बाबू उसके क धे तक बाल, छोट -छोट दाढ़ , बड़ी-बड़ी गुलाबी आँख को नेह से दे खते। घीसू उनका न य दशन करनेवाला, उनक बीन सुननेवाला भ था। नं बाब उसे अपने ड बे से दो ख ली पान क दे ते ए कहते—लो, इसे जमा लो! य , तुम तो इसे जमा लेना ही कहते हो न? वह वन भाव से पान लेते ए हँस दे ता—उसके व छ मोती-से दाँत हँसने लगते। घीसू क अव था प चीस क होगी। उसक बूढ माता को मरे भी तीन वष हो गए थे। नं बाबू क बीन सुनकर वह बाजार से कचौड़ी और ध लेता, घर जाता, अपनी कोठरी म गुनगुनाता आ सो जाता। उसक पूँजी थी एक सौ पये। वह रेजगी और पैसे क थैली लेकर दशा मेध पर बैठता, एक पैसा पया बट् टा लया करता और उसको बारह-चौदह आने क बचत हो जाती थी। गो वदराम जब बूट बनाकर उसे बुलाते, वह अ वीकार करता। गो वदराम कहते—