पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१०९

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'क्यों ?' 'देश के लिए।' वह गर्व से बोला। 'और तुम्हारी माँ?' 'वह बीमार हैं।' 'और तुम तमाशा देख रहे हो?' उसके मुँह से तिरस्कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा-'तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूंगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती!' मैं आश्चर्य से उस तेरह-चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा। 'हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी! माँ जी बीमार हैं; इसलिए मैं नहीं गया।' 'कहाँ?' _ 'जेल में! जब कुछ लोग खेल-तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्यों न दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।' मैंने दीर्घ निःश्वास लिया। चारों ओर बिजली के लटू नाच रहे थे। मन व्यग्र हो उठा। उसने कहा-'अच्छा चलो, निशाना लगाया जाए।' हम दोनों उस जगह पर पहुंचे, जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट खरीदकर उस लड़के को दिये। वह निकला पक्का निशानेबाज। उसका कोई गेंद खाली नहीं गया। देखनेवाले दंग रह गये। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया; लेकिन उठाता कैसे? कुछ मेरे रूमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिये गये। ___ लड़के ने कहा-'बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊंगा। बाहर आइये, मैं चलता हूँ।' वह नौ-दो ग्यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा-'इतनी जल्दी आँख बदल गयी।' मैं घूमकर पान की दूकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर-नीचे आना देखने लगा। अकस्मात् किसी ने हिंडोले से पुकारा–'बाबूजी!' मैंने पूछा-'कौन?' 'मैं हूँ छोटा जादूगर।' कलकत्ते के सुरम्य बोटैनिकल-उद्यान में लाल कमलिनी से भरी हुई एक छोटी-सी झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मण्डली के साथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा था। बातें हो रही थीं। इतने में वही छोटा जादूगर दिखाई पड़ा। हाथ में चारखाने की खादी का झोला। साफ जाँघिया और आधी बाँहों का कुरता। सिर पर मेरा रूमाल सूत की रस्सी से बँधा हुआ था। मस्तानी चाल से झूमता हुआ आकर कहने लगा 'बाबूजी, नमस्ते! आज कहिये, तो खेल दिखाऊँ।'