पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१११

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बड़े दन क छु ट् ट बीत चली थ । मुझे अपने ऑ फस म समय से प ँचना था। कलक े से मन ऊब गया था। फर भी चलते-चलते एक बार उस उ ान को दे खने क इ छा ई। साथही-साथ जा गर भी दखाई पड़ जाता, तो और भी…म उस दन अकेले ही चल पड़ा। ज द लौट आना था। दस बज चुके थे। मने दे खा क उस नमल धूप म सड़क के कनारे एक कपड़े पर छोटे जा गर का रंगमंच सजा था। मोटर रोककर उतर पड़ा। वहाँ ब ली ठ रही थी। भालू मनाने चला था। याह क तैयारी थी; यह सब होते ए भी जा गर क वाणी म वह स ता क तरी नह थी। जब वह और को हँसाने क चे ा कर रहा था, तब जैसे वयं काँप जाता था। मानो उसके रोएँ रो रहे थे। म आ य से दे ख रहा था। खेल हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड़ म मुझे दे खा। वह जैसे ण-भर के लए फू तमान हो गया। मने उसक पीठ थपथपाते ए पूछा—‘आज तु हारा खेल जमा य नह ?’ ‘माँ ने कहा है क आज तुर त चले आना। मेरी घड़ी समीप है।’—अ वचल भाव से उसने कहा। ‘तब भी तुम खेल दखलाने चले आये।’ मने कुछ ोध से कहा। मनु य के सुख- ःख का माप अपना ही साधन तो है। उसी के अनुपात से वह तुलना करता है। उसके मुँह पर वही प र चत तर कार क रेखा फूट पड़ी। उसने कहा—‘ य न आता!’ और कुछ अ धक कहने म जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहा था। ण-भर म मुझे अपनी भूल मालूम हो गयी। उसके झोले को गाड़ी म फककर उसे भी बैठाते ए मने कहा—‘ज द चलो।’ मोटरवाला मेरे बताये ए पथ पर चल पड़ा। कुछ ही मनट म म झ पड़ी के पास प ँचा। जा गर दौड़कर झ पड़े म माँ-माँ पुकारते ए घुसा। म भी पीछे था; क तु ी के मुँह से, ‘बे…’ नकलकर रह गया। उसके बल हाथ उठकर गर गये। जा गर उससे लपटा रो रहा था; म त ध था। उस उ वल धूप म सम संसार जैसे जा -सा मेरे चार ओर नृ य करने लगा।