पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/११३

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महाजाल खींचकर लाया गया। कुछ तो मछलियाँ थीं ही; पर उसमें एक भीषण समुद्री बाघ भी था। दर्शकों के झुण्ड जुट पड़े। कामैया के पिता से कहा गया उसे जाल में से निकालने के लिए, जिससे प्रकृति की उस भीषण कारीगरी को लोग भलीभाँति देख सकें। लोभ संवरण न करके उसने समुद्री बाघ को जाल से निकाला। एक खूटे से उसकी पूँछ बाँध दी गयी। जग्गैया की माँ अपना काम करने की धुन में जाल में मछलियाँ पकड़कर दौरी में रख रही थी। समुद्री बाघ बालू की विस्तृत बेला में एक बार उछला। जग्गैया की माता का हाथ उसके मुँह में चला गया। कोलाहल मचा; पर बेकार! बेचारी का हाथ वह चबा गया। दर्शक लोग चले गये। जग्गैया अपनी मूर्छित माता को उठाकर झोंपड़ी में जब ले चला, तब उसके मन में कामैया के पिता पर असीम क्रोध और दर्शकों के लिए प्रतिहिंसा उद्वेलित हो रही थी। कामैया की आँखों से आँसू बह रहे थे। तब भी वह बोली नहीं। कई सप्ताह से महाजाल में मछलियाँ नहीं के बराबर फँस रही थीं। चावलों की बोझाई तो बन्द थी ही, नावें बेकार पड़ी रहती थीं। मछलियों का व्यवसाय चल रहा था; वह भी डावाँडोल हो रहा था। किसी देवता की अकृपा है क्या? कामैया के पिता ने रात को पूजा की। बालू की वेदियों के पास खजूर की डालियाँ गड़ी थीं। समुद्री बाघ के दाँत भी बिखरे थे। बोतलों में मदिरा भी पुजारियों के समीप प्रस्तुत थी। रात में समुद्र-देवता की पूजा आरम्भ हुई। जग्गैया दूर, जहाँ तक समुद्र की लहरें आकर लौट जाती हैं, वहीं बैठा हुआ चुपचाप अनन्त जलराशि की ओर देख रहा था और मन में सोच रहा था क्यों मेरे पास एक नाव न रही? मैं कितनी मछलियाँ पकड़ता; आह! फिर मेरी माता को इतना कष्ट क्यों होता। अरे! वह तो मर रही है; मेरे लिए इसी अँधकार-सा दारिद्रय छोड़कर! तब भी देखें, भाग्य-देवता क्या करते हैं। इसी सगैया की मजदूरी करने से तो वह मर रही है। उसके क्रोध का उद्वेग समुद्र-सा गर्जन करने लगा। पूजा समाप्त करके मदिरारुण नेत्रों से घूरते हुए पुजारी ने कहा-'रग्गैया! अपना भला चाहते हो, तो जग्गैया के कुटुम्ब से कोई सम्बन्ध न रखना। समझा न?' उधर जग्गैया का क्रोध अपनी सीमा पार कर रहा था। उसकी इच्छा होती थी कि रग्गैया का गला घोंट दे, किन्तु वह निर्बल बालक। उसके सामने से जैसे लहरें लौट जाती थीं, उसी तरह उसका क्रोध मूर्छित होकर गिरता-सा प्रत्यावर्तन करने लगा। वह दूर-ही-दूर अंधकार में झोंपड़ी की ओर लौट रहा था। सहसा किसी का कठोर हाथ उसके कन्धे पर पड़ा। उसने चौंककर कहा- 'कौन?' मदिरा-विह्वल कण्ठ से रग्गैया ने कहा-'तुम मेरे घर कल से न आना।'