पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

मोहनलाल-मैं कुसुमपुर जाता था, किन्तु रास्ता भूल गया...|

'कुसुमपुर' का नाम सुनते ही स्त्री का मुख-मण्डल आरक्तिम हो गया और उसके नेत्रों से दो बूंद आँसू निकल आए। अश्रु करुणा के नहीं, किन्तु अभिमान के थे।

मोहनलाल आश्चर्यान्वित होकर देख रहे थे। उन्होंने पूछा-आपको कुसुमपुर के नाम से क्षोभ क्यों हुआ?

स्त्री-बेटा! उसकी बड़ी कथा है, तुम सुनकर क्या करोगे?

मोहनलाल-नहीं, मैं सुनना चाहता हूँ यदि आप कृपा करके सुनावें। स्त्री-अच्छा, कुछ जलपान कर लो, तब सुनाऊँगी।

पुन: बालिका की ओर देखकर स्त्री ने कहा-कुछ जल पीने को ले आओ।

आज्ञा पाते ही बालिका उस क्षुद्र गृह के एक मिट्टी के बर्तन में से कुछ वस्तु निकाल, उसे एक पात्र में घोलकर ले आई और मोहनलाल के सामने रख दिया। मोहनलाल उस शर्बत को पान करके फूस की चटाई पर बैठकर स्त्री की कथा सुनने लगे।

 

स्त्री कहने लगी-हमारे पति इस प्रान्त के गण्य भूस्वामी थे और वंश भी हम लोगों का बहुत उच्च था। जिस गाँव का अभी आपने नाम लिया है. वहीं हमारे पति की प्रधान जमींदारी थी। कार्यवश कुन्दनलाल नामक एक महाजन से कुछ ऋण लिया गया। कुछ भी विचार न करने से उसका बहुत रुपया बढ़ गया और जब ऐसी अवस्था पहुँची तो अनेक उपाय करके हमारे पति धन जुटाकर उसके पास ले गए, तब उस धूर्त ने कहा-"क्या हर्ज है बाबू साहब! आप आठ रोज में आना, हम रुपया ले लेंगे, और जो घाटा होगा, उसे छोड़ देंगे, आपका इलाका फिर जाएगा, इस समय रेहन-नामा भी नहीं मिल रहा है।" उसका विश्वास करके हमारे पति फिर बैठे रहे और उसने कुछ भी न पूछा। उनकी उदारता के कारण वह संचित धन भी थोड़ा हो गया, और उधर उसने दावा करके इलाका...जो कि वह ले लेना चाहता था, बहुत थोड़े रुपयों में नीलाम करा लिया। फिर हमारे पति के हृदय में उस इलाके के इस भाँति निकल जाने के कारण, बहत चोट पहँची और इसी से उनकी मत्य हो गई। इस दशा के होने के उपरान्त हम लोग इस दूसरे गाँव में आकर रहने लगीं। यहाँ के जमींदार बहुत धर्मात्मा हैं, उन्होंने कुछ सामान्य 'कर' पर यह भूमि दी है, इसी से अब हमारी जीविका है।...

इतना कहते-कहते स्त्री का गला अभिमान से भर आया और कुछ कह न सकी।

स्त्री की कथा सुनकर मोहनलाल को बड़ा दुःख हुआ। रात विशेष बीत चुकी थी, अत: रात्रि-यापन करके, प्रभात में मलिन तथा पश्चिमगामी चन्द्र का अनुसरण करके, बताए हुए पथ से वह चले गए।

पर उनके मुख पर विषाद तथा लज्जा ने अधिकार कर लिया था। कारण यह था कि स्त्री की जमींदारी हरण करने वाले तथा उसके प्राणप्रिय पति से उसे विच्छेद कराकर इस भाँति दुःख देने वाले कुन्दनलाल मोहनलाल के ही पिता थे।