पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१५२

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किसी कुंज में घुसने का साहस नहीं रखती थी। नरगिस दूसरे कुंज से निकलकर आ रही थी। उसने नूरी से पूछा 'क्यों, उधर देख आयी?' 'नहीं, मुझे तो नहीं मिले।' 'तो फिर चल, इधर कामिनी के झाड़ों में देखू।' 'तू ही जा, मैं थक गयी हूँ।' नरगिस चली गयी। मालती की झुकी हुई डाल की अंधेरी छाया में धड़कते हुए हृदय को हाथों में दबाये नूरी खड़ी थी! पीछे से किसी ने उसकी आँखों को बन्द कर लिया। नूरी की धड़कन और बढ़ गयी। उसने साहस से पूछा 'मैं पहचान गयी!' 'जहाँपनाह' उसके मुँह से निकला ही था कि अकबर ने उसका मुँह बन्द कर लिया और धीरे से उसके कानों में कहा 'मरियम को बता देना, सुलताना को नहीं; समझी न! मैं उस कुंज में जाता हूँ।' अकबर के जाने के बाद ही सुलताना वहाँ आयी। नूरी उसी की छत्रछाया में रहती थी; पर अकबर की आज्ञा! उसने दूसरी ओर सुलताना को बहका दिया। मरियम धीरे-धीरे वहाँ आयी। वह ईसाई बेगम उस आमोद-प्रमोद से परिचित न थी। तो भी यह मनोरंजन उसे अच्छा लगा। नूरी ने अकबरवाला कुंज उसे बता दिया। घण्टों के बाद जब सब सुन्दरियाँ थक गयी थीं, तब मरियम का हाथ पकड़े अकबर बाहर आये। उस समय नौबतखाने से मीठी-मीठी सोहनी बज रही थी। अकबर ने एक बार नूरी को अच्छी तरह देखा। उसके कपोलों को थपथपाकर उसको पुरस्कार दिया। आँखमिचौनी हो गयी! सिकरी की झील जैसे लहरा रही है, वैसा ही आन्दोलन नूरी के हृदय में हो रहा है। वसन्त की चाँदनी में भ्रम हुआ कि उसका प्रेमी युवक आया है। उसने चौंककर देखा; किन्तु कोई नहीं था। मौलसिरी के नीचे बैठे हुए उसे एक घड़ी से अधिक हो गया। जीवन में आज पहले ही अभिसार का वह साहस कर सकी है। भय से उसका मन काँप रहा है; पर लौट जाने को मन नहीं चाहता। उत्कण्ठा और प्रतीक्षा कितनी पागल सहेलियाँ हैं! दोनों उसे उछालने लगीं। किसी ने पीछे से आकर कहा-'मैं आ गया।' नूरी ने घूमकर देखा, लम्बा-सा, गौर वर्ण का युवक उसकी बगल में खड़ा है। वह चाँदनी रात में उसे पहचान गयी। उसने कहा-'शाहजादा याकूब खाँ!' 'हाँ, मैं ही हूँ! कहो, तमने क्यों बलाया है?' नूरी सन्नाटे में आ गयी। इस प्रश्न में प्रेम की गन्ध भी नहीं थी। वह भी महलों में रह चुकी थी। उसने भी पैंतरा बदल दिया।