पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

________________

याकूब के नतमस्तक की रेखाएँ ऐंठी जा रही थीं। वह चुप था। फिर नूरी की ओर देखकर शहंशाह ने कहा-'तो इसीलिए तू काश्मीर जाने की छुट्टी माँग रही थी?' वह भी चुप। 'याकूब तुम्हारा यह लड़कपन यूसुफ खाँ भी न सहते; लेकिन मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ। जाने की तैयारी करो। मैं काबुल से लौटकर काश्मीर आऊँगा।' संकेत पाते ही तातारियाँ याकूब को ले चलीं। नूरी खड़ी रही। अकबर ने उसकी ओर देखकर कहा-'इसे बुर्ज में ले जाओ।' नूरी बुर्ज के तहखाने में बन्दिनी हुई। अट्ठारह बरस बाद! जब अकबर की नवरत्न-सभा उजड़ चुकी थी, उसके प्रताप की ज्योति आनेवाले अन्तिम दिन की उदास और धुंधली छाया में विलीन हो रही थी, हिन्दू और मुस्लिम-एकता का उत्साह शीतल हो रहा था, तब अकबर को अपने पुत्र सलीम से भी भय उत्पन्न हुआ। सलीम ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की थी, इसीलिए पिता-पुत्र में मेल होने पर भी आगरा में रहने के लिए सलीम को जगह नहीं थी। उसने दुखी होकर अपनी जन्मभूमि में रहने की आज्ञा माँगी। सलीम फतहपुर-सीकरी आया। मुगल साम्राज्य का वह अलौकिक इन्द्रजाल! अकबर की यौवन-निशा का सनहरा स्वप्न-सीकरी का महल-पथरीली चटटानों पर बिखरा पडा डा था। इतना आकस्मिक उत्थान और पतन! जहाँ एक विश्वजनीन धर्म की उत्पत्ति की सूचना हुई, जहाँ उस धर्मान्धता के युग में एक छत के नीचे ईसाई, पारसी, जैन, इस्लाम और हिन्दू आदि धर्मों पर वाद-विवाद हो रहा था, जहाँ सन्त सलीम की समाधि थी, जहाँ शाह सलीम का जन्म हुआ था, वहीं अपनी अपूर्णता और खंडहरों से अस्त-व्यस्त सीकरी का महल अकबर के जीवनकाल में ही, निर्वासिता सुन्दरी की तरह दया का पात्र, श्रृंगारविहीन और उजाड़ पड़ा था। अभी तक अकबर के शून्य शयन-मन्दिर में विक्रमादित्य के नवरत्नों का छाया-पूर्ण अभिनय चल रहा था। अभी तक सराय में कोई यात्री सन्त की समाधि का दर्शन करने को आता ही रहता! अभी तक बुजों के तहखानों में कैदियों का अभाव न था! सीकरी की दशा देखकर सलीम का हृदय व्यथित हो उठा। अपूर्व शिल्प बिलख रहे थे। गिरे हुए कँगूरे चरणों में लौट रहे थे। अपनी माता के महल में जाकर भरपेट रोया। वहाँ जो इने-गिने दास और दासियाँ और उनके दारोगे बच रहे थे, भिखमंगों की-सी दशा में फटे चीथड़ों में उसके सामने आये। सब समाधि के लंगर-खाने से भोजन पाते थे। सलीम ने समाधि का दर्शन करके पहली आज्ञा दी कि तहखानों में जितने बन्दी हैं, सब छोड़ दिये जाएँ। सलीम को मालूम था कि यहाँ कोई राजनैतिक बन्दी नहीं है। दुर्गन्ध से सने हुए कितने ही नर-कंकाल सन्त सलीम की समाधि पर आकर प्रसन्नता से हिचकी लेने लगे और युवराज सलीम के चरणों को चूमने लगे। उन्हीं में एक नूरी भी थी। उसका यौवन कारागार की कठिनाइयों से कुचल गया था। सौन्दर्य अपने दो-चार रेखा-चिह्न छोड़कर समय के साथ पंखों पर बैठकर उड़ गया था।