पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१५८

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'बहुत कुछ।'-टूटे स्वर से युवक ने कहा। नूरी भीतर चली गयी। उसने कहा-'क्या है, कहिये?' 'पास में पैसा न होने से ये लोग मेरी खोज नहीं लेते। आज सवेरे से मैंने जल नहीं पिया। पैर इतने दुख रहे हैं कि मैं उठ नहीं सकता।' 'कुछ खाया भी न होगा।' 'कल रात को यहाँ पहुँचने पर थोड़ा-सा खा लिया था। पैदल चलने से पैर सूज आये हैं, तब से यों ही पड़ा हूँ।' __नूरी थाल रखकर बाहर चली गयी। पानी लेकर आयी। उसने कहा-'लो, अब उठकर कुछ रोटियाँ खाकर पानी पी लो।' युवक उठ बैठा। कुछ अन्न-जल पेट में जाने के बाद जैसे उसे चेतना आ गयी। उसने पूछा-'तुम कौन हो? 'मैं लंगर-खाने से रोटियाँ बाँटती हूँ। मेरा नाम नूरी है। जब तक तुम्हारी पीड़ा अच्छी न होगी, मैं तुम्हारी सेवा करूँगी। रोटियाँ पहुँचाऊँगी। जल रख जाऊँगी। घबराओ नहीं। वह मालिक सबको देखता है।' युवक की विवर्ण आँखें प्रार्थना में ऊपर की ओर उठ गयीं। फिर दीर्घ निःश्वास लेकर पूछा-'क्या नाम बताया? नूरी न?' 'हाँ, यही तो!' 'अच्छा, तुम यहाँ महलों में जाती होगी।' 'महल! हाँ, महलों की दीवारें तो खड़ी हैं।' 'तब तुम नहीं जानती होगी। उसका भी नाम नूरी था! वह काश्मीर की रहनेवाली थी'। 'उससे आपको क्या काम है?'-मन-ही-मन काँपकर नूरी ने पूछा। 'मिले तो कह देना कि एक अभागे ने तुम्हारे प्यार को ठुकरा दिया था। वह काश्मीर का शाहजादा था, पर अब तो भिखमंगे से भी...'-कहते-कहते उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। नूरी ने उसके आँसू पोंछकर पूछा-'क्या अब भी उससे मिलने को मन करता है?' वह सिसककर कहने लगा-'मेरा नाम याकूब खाँ है। मैंने अकबर के सामने तलवार उठाई और लड़ा भी। जो कुछ मुझसे हो सकता था, वह काश्मीर के लिए मैंने किया। इसके बाद बिहार के भयानक तहखाने में बेड़ियों से जकड़ा हुआ कितने दिनों तक पड़ा रहा। सुना है कि सुलतान सलीम ने वहाँ के अभागों को फिर से धूप देखने के लिए छोड़ दिया है। मैं वहीं से ठोकरें खाता हुआ चला आ रहा हूँ। हथकड़ियों से छूटने पर किसी अपने प्यार करनेवाले को देखना चाहता था। इसी से सीकरी चला आया। देखता हूँ कि मुझे वह भी न मिलेगा।' याकूब अपनी उखड़ी हुई साँसों को संभालने लगा था और नूरी के मन में विगत काल की घटना, अपने प्रेम-समर्पण का उत्साह, फिर उस मनस्वी युवक की अवहेलना सजीव हो उठी।