पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

गूदड़ साईं


'साईं! ओ साईं!!' एक लड़के ने पुकारा। साईं घूम पड़ा। उसने देखा कि 8 वर्ष का

'बालक उसे पुकार रहा है।

आज कई दिन पर उस मोहल्ले में साईं दिखलाई पड़ा है। साईं वैरागी था—माया नहीं, मोह नहीं, परन्तु कुछ दिनों से उसकी आदत पड़ गई थी कि दोपहर को मोहन के घर जाता, अपने दो-तीन गन्दे गूदड़ यत्न से रखकर उन्हीं पर बैठ जाता और मोहन से बातें करता। जब कभी मोहन उसे गरीब और भिखमंगा जानकर माँ से अभिमान करके पिता की नजर बचाकर कुछ साग-रोटी लाकर दे देता, तब उस साईं के मुख पर पवित्र मैत्री के भावों का साम्राज्य हो जाता। गदड साईं उस समय 10 वर्ष के बालक के समान अभिमान. सराहना और उलाहना के आदान-प्रदान के बाद उसे बड़े चाव से खा लेता; मोहन की दी हुई एक रोटी उसकी अक्षय-तृप्ति का कारण होती।

एक दिन मोहन के पिता ने देख लिया। वह बहुत बिगड़े। वह थे कट्टर आर्यसमाजी। ढोंगी फकीरों पर उनकी साधारण और स्वाभाविक चिढ़ थी। मोहन को डाँटा कि वह इन लोगों के साथ बातें न किया करे। साईं हँस पड़ा, चला गया।

उसके बाद आज कई दिन पर साईं आया और वह जान-बूझकर उस बालक के मकान की ओर नहीं गया; परन्तु पढ़कर लौटते हुए मोहन ने उसे देखकर पुकारा और वह लौट भी आया।

'मोहन!' 'तुम आजकल आते नहीं?' 'तुम्हारे बाबा बिगड़ते थे।' 'नहीं, तुम रोटी ले जाया करो।' 'भूख नहीं लगती।' 'अच्छा, कल जरूर आना; भूलना मत!'