पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/३४

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दृष्टि से देख रहा है।

अमरनाथ-ऐसे समाज की मुझे कुछ परवाह नहीं है। मैं तो केवल लड़की और लड़के का ब्याह अपनी जाति में करना चाहता था। क्या टापुओं में जाकर लोग पहले बनिज नहीं करते थे? मैंने कोई अन्य धर्म तो ग्रहण नहीं किया, फिर यह व्यर्थ का आडम्बर क्यों है? और यदि, कोई खान-पान का दोष दे, तो क्या यहाँ पर तिलक कर पूजा करनेवाले लोगों से होटल बचा हुआ है?

हीरामणि-फिर क्या कीजिएगा? समाज तो इस समय केवल उन्हीं बगला-भगतों को परम धार्मिक समझता है!

अमरनाथ–तो फिर अब मैं ऐसे समाज को दूर ही से हाथ जोड़ता हूँ। हीरामणि-तो ये लड़के-लड़की क्वाँरे ही रहेंगे?

अमरनाथ-नहीं, अब हमारी यह इच्छा है कि तुम सबको लेकर उसी जगह चलें। यहाँ कई वर्ष रहते भी हुए, किन्तु कार्य सिद्ध होने की कुछ भी आशा नहीं है, तो फिर अपना व्यापार क्यों नष्ट होने दें? इसलिए, अब तुम सबको वहीं चलना होगा। न होगा तो ब्राहा हो जाएँगे, किन्तु यह उपेक्षा अब सही नहीं जाती।

 

मदन, मृणालिनी के संगम से बहुत ही प्रसन्न है। सरला मृणालिनी भी प्रफुल्लित है। किशोरनाथ भी उसे बहुत प्यार करता है, प्राय: उसी को साथ लेकर हवा खाने के लिए जाता है। दोनों में बहुत ही सौहार्द है। मदन भी बाहर किशोरनाथ के साथ और घर आने पर मृणालिनी की प्रेममयी वाणी से आप्यायित रहता है।

मदन का समय सुख से बीतने लगा, किन्तु बनर्जी महाशय के सपरिवार बाहर जाने की बातों ने एक बार उसके हृदय को उद्वेगपूर्ण बना दिया। वह सोचने लगा कि मेरा क्या परिणाम होगा, क्या मुझे भी चलने के लिए आज्ञा देंगे? और यदि ये चलने के लिए कहेंगे, तो मैं क्या करूँगा? इनके साथ जाना ठीक होगा या नहीं?

इन सब बातों को वह सोचता ही था कि इतने में किशोरनाथ ने अकस्मात् आकर उसे चौंका दिया। उसने खड़े होकर पूछा-कहिए, आप लोग किस सोच-विचार में पड़े हुए हैं? कहाँ जाने का विचार है?

-क्यों, क्या तुम न चलोगे?

-कहाँ?

-जहाँ हम लोग जाएँ।

-वही तो पूछता हूँ कि आप लोग कहाँ जाएँगे?

-सीलोन!

-तो मुझसे भी आप वहाँ चलने के लिए कहते हैं?

-इसमें तुम्हारी हानि ही क्या है?

-(यज्ञोपवीत दिखाकर) इसकी ओर भी तो ध्यान कीजिए!