पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/५७

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पर उसकी आँखों पर रंगीन चश्मा चढ़ गया। उसकी तन्द्रा का यह काल्पनिक स्वर्ग धीरे-धीरे विलास मन्दिर में परिणत होने लगा। घनश्याम ने देखा कि अद्भुत रूप, यौवन की चरमसीमा और स्वास्थ्य का मनोहर संस्करण, रंग बदलकर पाप ही सामने आया है।

पाप का यह रूप, जब वह वासना को फाँसकर अपनी ओर मिला चुकता है, बड़ा कोमल अथच कठोर एवं भयानक होता है और तब पाप का मुख कितना सुन्दर होता है! सुन्दर ही नहीं, आकर्षक भी, वह भी कितना प्रलोभन-पूर्ण और कितना शक्तिशाली, जो अनुभव में नहीं आ सकता। उसमें विजय का दर्प भरा रहता है। वह अपनी एक मृदु मुस्कान से सुदृढ़ विवेक की अवहेलना करता है। घनश्याम ने धोखा खाया और क्षण भर में वह सरल सुषमा विलुप्त होकर उद्दीपन का अभिनय करने लगी। यौवन ने भी उस समय काम से मित्रता कर ली। पाप की सेना और उसका आक्रमण प्रबल हो चला। विचलित होते ही घनश्याम को पराजित होना पड़ा। वह आवेश में बाँहें फैलाकर झरने को पार करने लगा।

नील की पुतली ने उस ओर देखा भी नहीं। युवक की माँसल पीन भुजाएँ उसे आलिंगन करना ही चाहती थीं कि ऊपर पहाड़ी पर से शब्द सुनाई पड़ा-'क्यों नीला, कब तक यहीं बैठी रहेगी? मुझे देर हो रही है। चल, घर चलें।'

घनश्याम ने सिर उठाकर देखा तो ज्योतिर्मयी दिव्य मूर्ति रमणी सुलभ पवित्रता का ज्वलन्त प्रमाण, केवल यौवन से ही नहीं, बल्कि कला की दृष्टि से भी, दृष्टिगत हुई, किन्तु आत्म-गौरव का दुर्ग किसी की सहज पाप-वासना को वहाँ फटकने नहीं देता था। शिकारी घनश्याम लज्जित तो हुआ ही, पर वह भयभीत भी था। पुण्य-प्रतिमा के सामने पाप की पराजय हुई। नीला ने घबराकर कहा-'रानी जी, आती हूँ। जरा मैं थक गई थी।' रानी और नीला दोनों चली गईं। अबकी बार घनश्याम ने फिर सोचने का प्रयास किया—'क्या, सौन्दर्य उपभोग के लिए नहीं, केवल उपासना के लिए है?' खिन्न होकर वह घर लौटा, किन्तु बारबार वह घटना याद आती रही। घनश्याम कई बार उस झरने पर क्षमा माँगने गया, किन्तु वहाँ उसे कोई न मिला।

जो कठोर सत्य है, जो प्रत्यक्ष है, जिसकी प्रचण्ड लपट अभी नदी में प्रतिभासित हो रही है, जिसकी गर्मी इस शीतल रात्रि में भी अंक में अनुभूत हो रही है, उसे असत्य या उसे कल्पना कहकर उड़ा देने के लिए घनश्याम का मन हठ कर रहा है।

थोड़ी देर पहले जब (नदी पर से मुक्त आकाश में एक टुकड़ा बादल का उठ आया था) चिता लग चुकी थी, घनश्याम आग लगाने को उपस्थित था। उसकी स्त्री चिता पर अतीत निद्रा में निमग्न थी। निठुर हिन्दू-शास्त्र की कठोर आज्ञा से जब वह विद्रोह करने लगा था, उसी समय घनश्याम को सान्त्वना हुई, उसने अचानक मूर्खता से अग्नि लगा दी। उसे ध्यान हुआ कि निर्दय बादल बरसकर चिता को बुझा देंगे, उसे जलने न देंगे, किन्तु व्यर्थ? चिता ठण्डी होकर और भी ठहर-ठहर कर सुलगने लगी, क्षणभर में जलकर राख न होने पाई।

घनश्याम ने हृदय में सोचा कि यदि हम मुसलमान या ईसाई होते तो? आह! फूलों में