पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/५९

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युवक घनश्याम इसका उत्तर देने में असमर्थ था। कुछ दिन पहले वह अपना सर्वस्व देकर भी ऐसा रूप क्रय करने को प्रस्तुत हो जाता। आज वह अपनी स्त्री के वियोग में बड़ा ही सीधा, धार्मिक, निरीह एवं परोपकारी हो गया था। आर्त्त मुमुक्षु की तरह उसे न जाने किस वस्तु की खोज थी।

घनश्याम ने कहा- 'मैं क्या उत्तर दूँ?'

'क्यों? क्या दाम न लगेगा? हाँ तुम आज किस वेश में हो? क्या सोचते हो? बोलते क्यों नहीं?'

'मेरी स्त्री का शरीरान्त हो गया।'

'तब तो अच्छा हुआ, तुम नगर के धनी हो। तुम्हें तो रूप की आवश्यकता होती होगी। क्या इसे क्रय करोगे?'

घनश्याम ने हाथ जोड़कर सिर नीचा कर लिया। तब उस रानी ने कहा-'उस दिन तो एक भिल्लनी के रूप पर मरते थे। क्यों, आज क्या हुआ?'

'देवी, मेरा साहस नहीं है-वह पाप का वेग था।'

'छिः, पाप के लिए साहस था और पुण्य के लिए नहीं?'

घनश्याम रो पड़ा और बोला-'क्षमा कीजिएगा। पुण्य किस प्रकार सम्पादित होता है, मुझे नहीं मालूम। किन्तु इसे पुण्य कहने में...।'

'संकोच होता है। क्यों?'

इसी समय दो-तीन बालक, चार-पाँच स्त्रियाँ और छः-सात भील अनाहार-क्लिष्ट, शीर्ण कलेवर पवन के बल से हिलते-डुलते रानी के सामने आकर खड़े हो गए।

रानी ने कहा-'क्यों, अब पाप की परिभाषा करोगे?'

घनश्याम ने काँपकर कहा-'नहीं, प्रायश्चित करूँगा, उस दिन के पाप का प्रायश्चित्त।'

युवक घनश्याम वेग से उठ खड़ा हुआ, बोला-'बहन, तुमने मेरे जीवन को अवलम्ब दिया है। मैं निरुद्देश्य हो रहा था, कर्त्तव्य नहीं सूझ पड़ता था। आपको रूप-विक्रय न करना पड़ेगा। देवी! मैं सन्ध्या तक आ जाऊँगा।

'सन्ध्या तक?'

'और भी पहले।'

बालक रोने लगे–'रानी माँ, अब नहीं रहा जाता। 'घनश्याम से भी नहीं रहा गया, वह भागा।

घनश्याम की पापभूमि, देखते-देखते गाड़ी और छकड़ों से भर गई, बाजार लग गया, रानी के प्रबन्ध में घनश्याम ने वहीं पर अकाल-पीड़ितों की सेवा आरम्भ कर दी।

जो घटना उसे बार-बार स्मरण होती थी, उसी का यह प्रायश्चित था। घनश्याम ने उसी भिल्लनी को प्रधान प्रबन्ध करने वाली देखकर आश्चर्य किया। उसे न जाने क्यों हर्ष और उत्साह दोनों हुए।