पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/६२

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मनोरमा तो तब तक दूध का कटोरा लेकर सामने आ गई, बोली-'थोड़ा-सा लीजिए, अभी गरम है।'

मोहन बार-बार सोचता था कि कोई ऐसी बात निकले, जिसमें मुझे कुछ करना पड़े और मनोरमा मानिनी बने, मैं उसे मनाऊँ; किन्तु मनोरमा में वह मिट्टी ही नहीं रही। मनोरमा तो कल की पुतली हो गई थी। मोहन ने-'दूध अभी गरम है 'इसी में से देर होने का व्यंग्य निकाल लिया और कहा-'हाँ, आज मेला देखने चला गया था, इसी में देर हुई।'

किन्तु वहाँ कैफियत तो कोई लेता न था, देने के लिए प्रस्तुत अवश्य था। मनोरमा ने कहा-'नहीं, अभी देर तो नहीं हुई। आध घण्टा हुआ होगा कि दूध उतारा गया है।'

मोहन हताश हो गया। चुपचाप पलंग पर जा लेटा। मनोरमा ने उधर ध्यान भी नहीं दिया। वह चतुरता से गृहस्थी की सारी वस्तुओं को समेटने लगी। थोड़ी देर में इससे निबटकर वह अपनी भूल समझ गई। चट पान लगाने बैठ गई। मोहन ने यह देखकर कहा-'नहीं, मैं पान इस समय न खाऊंगा।'

मनोरमा ने भयभीत स्वर से कहा-'बिखरी हुई चीजें इकट्ठी न कर लेती तो बिल्ली-चूहे उसे खराब कर देते। थोड़ी देर हुई है,क्षमा कीजिए। दो पान तो अवश्य खा लीजिए।'

बाध्य होकर मोहन को दो पान खाने पड़े। अब मनोरमा पैर दबाने बैठी। वेश्या तिरस्कृत मोहन घबरा उठा। वह इस सेवा से कब छुट्टी पाए? इस सहयोग से क्या बस चले। उसने विचारा कि मनोरमा को मैंने ही तो ऐसा बनाना चाहा था। अब वह ऐसी हुई, तो मुझे अब विरक्ति क्यों है? इसके चरित्र का यह अंश क्यों नहीं रुचता- किसी ने उसके कान में धीरे-से कहा-'तुम तो अपनी स्त्री को दासी बनाना चाहते थे, जो वास्तव में तुम्हारी अन्तरात्मा को ईप्सित नहीं था। तुम्हारी कुप्रवृत्तियों की वह उत्तेजना थी कि वह तुम्हारी चिरसंगिनी न होकर दासी के समान आज्ञाकारिणी मात्र रहे। वही हुआ। अब क्यों अँखते हो!' अकस्मात् मोहन उठ बैठा। मोहन और मनोरमा एक-दूसरे के पैर पकड़े हुए थे।