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इस लेख का विषय-क्षेत्र चूँकि हिन्दी कहानियों के प्रवृत्तिगत अध्ययन-विवेचन का न होकर, सिर्फ प्रसादजी के कहानी-लेखन तक सीमित है, अत: यहाँ उन्हीं को केन्द्र में रख कर चर्चा की जा रही है।


प्रसाद: जीवन और कृतित्व


जयशंकर प्रसाद छायावाद के शीर्षस्तम्भ कवि थे। लहर, झरना, आतूं आदि काव्यकृतियों के अतिरिक्त उन्होंने कामायनी प्रबन्ध काव्य का प्रणयन किया था। कविता के अतिरिक्त नाटकों के क्षेत्र में भी उनका अवदान शीर्ष स्थानीय है। राज्यश्री, विशाख, कामना, जनमेजय का नाम यक्ष, स्कन्धगुप्त, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, एक घुट आदि कोई 12 नाटक रचकर उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बाद हिन्दी नाट्य विधा को समृद्ध किया। कविता और नाटक के अतिरिक्त हिन्दी कथा-साहित्य के विकास में भी उनकी उल्लेखनीय भूमिका रेखांकित की जाती है। कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण) उपन्यासों और छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल-इन पाँच कहानी संग्रहों के द्वारा उन्होंने न सिर्फ हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि एक विशिष्ट कथा-धारा के प्रवर्तक कथाकार के रूप में पहचाने गए।

प्रसादजी का जन्म सन् 1889 में वाराणसी के एक समृद्ध व्यापारी घराने में हुआ। उनका पुश्तैनी व्यापार तम्बाकू का था और इसीलिए उनके पितामह श्री शिवरत्न साहु 'सुंघनी साहु' के रूप में विख्यात थे। 'प्रसादजी' पैदा हुए थे साहित्य-सेवा के लिए–नौ वर्ष की अल्पायु में ही वे काव्याभ्यास करने लगे थे, किन्तु वात्याचक्र कुछ ऐसा बना कि 17 वर्ष की वय तक पहुँचते-न-पहुँचते उन्हें अपना पैतृक व्यापार सम्भालना पड़ा। बारह वर्ष की वय में उनके पिता का देहान्त हआ. तदपरान्त. चार-पाँच वर्ष के भीतर. पहले उनकी माँ गई. ज्येष्ठ भ्राता श्री शम्भुरत्न भी चल बसे। इस तरह, युवावस्था में प्रवेश करते ही पारिवारिक, व्यावसायिक, सामाजिक और साहित्यिक-सभी दायित्व एक साथ जयशंकर प्रसाद के कच्चे कन्धों पर आ पड़े। यह उनका जीवट ही था कि न सिर्फ सफलतापूर्वक सभी दायित्वों का वहन किया, बल्कि अपने समय के शीर्ष साहित्य-पुरुषों में प्रतिष्ठित भी हुए।

'प्रसाद' जी की शिक्षा की शुरुआत घर पर ही हुई। आर्थिक अभाव था नहीं, अत: संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी-उर्दू के अलग-अलग अनुभवी शिक्षक नियुक्त हुए और वे घर पर ही शिक्षित-दीक्षित होने लगे। कालान्तर में कुछ समय के लिए उन्हें बनारस के क्वींस कॉलेज में प्रवेश दिलाया गया, किन्तु वहाँ वे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ पाए, किन्तु 'प्रसादजी' में स्वाध्याय की वृत्ति बहुत उत्कट थी। अन्य सभी दायित्वों का निर्वाह करते हुए उन्होंने वेद, उपनिषद-पुराण, न्याय, तर्क, साहित्य, दर्शन और इतिहास का गहन अध्ययन किया। इस सबके बीच कविता, नाटक और कथा आदि विविध साहित्य-विधाओं में लेखन अभ्यास भी अनवरत चलता रहा।

'प्रसाद' जी के साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ ब्रजभाषा में काव्याभ्यास से हुआ। जब वे नौ वर्ष के थे, तभी एक सवैया रचकर अपने गुरुदेव को दिखाया था। एक साहित्यकार के फिर