पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/७४

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"तब मैं अवश्य चला जाऊँगा, चंपा! यहाँ रहकर मैं अपने हृदय पर अधिकार रख सकू, इसमें संदेह है। आह! उन लहरों में मेरा विनाश हो जाए।" महानाविक के उच्छ्वास में विकलता थी। फिर उसने पूछा-"तुम अकेली यहाँ क्या करोगी?"

"पहले विचार था कि कभी इस दीप-स्तम्भ पर से आलोक जलाकर अपने पिता की समाधि का इस जल से अन्वेषण करूंगी, किन्तु देखती हूँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाश-दीप।"

 

एक दिन स्वर्ण-रहस्य के प्रभात में चंपा ने अपने दीप-स्तम्भ पर से देखा-सामुद्रिक नावों की एक श्रेणी चंपा का उपकूल छोड़कर पश्चिम-उत्तर की ओर महा जल-व्याल के समान सन्तरण कर रही है। उसकी आँखों में आँसू बहने लगे।

यह कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चंपा आजीवन उस दीप-स्तम्भ में आलोक जलाती रही, किन्तु उसके बाद भी बहुत दिन, दीपनिवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी की समाधि-सदृश पूजा करते थे।

एक दिन काल के कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चंचलता से गिरा दिया।