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रूप में यद्यपि उन्हें सर्वाधिक ख्याति कवि-रूप में मिली और वे छायावाद की वृहत्त्रयी के सबसे यशस्वी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए, किन्तु प्रकाशन की दृष्टि से उनकी कहानियाँ और नाटक पहले सामने आए। उनका पहला नाटक सज्जन 1910-11 में इन्दु में प्रकाशित हुआ और पहली कहानी 'ग्राम' भी 1910 में ही इन्दु में प्रकाशित हो चुकी थी। इतना ही नहीं, 1912 में 'ग्राम' समेत उनकी 11 कहानियों का पहला संग्रह छाया भी प्रकाशित हो गया था, जबकि चित्राधार, झरना आदि उनके पहले कविता-संग्रह 1918 में प्रकाशित हुए।

प्रसाद का कहानीकार

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'प्रसादजी' को 'गूढ़ व्यंजना और रमणीय कल्पना के सुन्दर समन्वय का कथाकार कहा था। शुक्लजी के इस कथन में 'प्रसादजी' के भावना लोक और विचारलोक का सूत्रवत् संकेत निहित है। प्रसाद की संवदेना खांटी कवि की थी और उनकी वैचारिक तैयारी प्राचीन संस्कृति व इतिहास के आदर्शों की श्रेणी में हुई थी। किसी कहानी का अंकुर उनके मानस में घटनाओं और चरित्रों के डिटेल्स के साथ नहीं फूटता, बल्कि एक काव्यात्मक बिम्ब के रूप में उभरता है और वे उसे अपनी काव्य संवेदना, अंतरिक अनुभूति और भावनात्मक द्वन्द्व के सहारे कहानी के रूप में विकसित करते हैं। 'मदन मृणालिनी' के मदन, 'जहाँनारा' के औरंगजेब, 'पाप की पराजय' के घनश्याम, 'आकाशदीप' की चंपा, 'गुण्डा' के नन्हकू सिंह आदि चरित्र अविस्मरणीय इसलिए बन सके, कि उनका विकास भावना और आदर्श के द्वन्द्व से हुआ है। आचार्य शुक्ल ने गुलेरीजी कहानी 'उसने कहा था' के सन्दर्भ में "पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावना का चरम उत्कर्ष अत्यन्त निपुणता के साथ सम्पुटित" होने की जो व्याख्या की है 'प्रसादजी' की अधिकांश चर्चित कहानियाँ भी उसी व्याख्या की कसौटी पर खरी उतरती हैं।

प्रेमचन्द और प्रसाद को सामान्यतया हिन्दी कहानी की दो धाराओं के प्रवर्तक कथाकार के रूप में पहचाना जाता है, यानी प्रेमचन्द सामाजिक यथार्थवादी धारा के प्रवर्तक और जयशंकर प्रसाद आदर्शवादी धारा के प्रवर्तक। वस्तुत: प्रेमचन्द का कथा-समाज हमारे वर्तमान का है, उस वर्तमान का, जिसमें श्रेणी-विभाजन साफ-साफ लक्ष्य किया जाने लगा, शोषण और उत्पीड़न के रूप स्पष्ट पहचाने जाने लगे। दूसरी ओर जयशंकर प्रसाद का कथासमाज प्राचीन गौरव गाथाओं और ऐतिहासिक आदर्शलोक से विकसित हुआ। सामाजिक और राजनीतिक आलोड़न, जो बीसवीं सदी में हमारे देश में बहुत मुखर हुआ, प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में उसे सशक्त अभिव्यक्ति मिली। आचार्य शक्ल के शब्दों में "प्रेमचन्द के कछ पात्रों में ऐसे स्वाभाविक ढाँचे की व्यक्तिगत विशेषताएँ मिलने लगीं, जिन्हें सामने पाकर अधिकांश लोगों को यह भासित हो कि कुछ इसी ढंग की विशेषता वाले व्यक्ति हमने कहींन-कहीं देखे हैं"। साथ ही "प्रेमचन्द की सी चलती और पात्रों के अनुरूप रंग बदलने वाली भाषा भी पहले नहीं देखी गई थी।" दूसरी तरफ प्रसाद के कथा-साहित्य में "मधुर या मार्मिक प्रसंग कल्पना के सहारे किसी ऐतिहासिक काल के खण्डचित्र... भारतीय संस्कृति और प्रभाव की झलक" पाठक की सम्वेदना पर किसी स्वप्नलोक का-सा प्रभाव छोड़ते हैं।