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उनके चरित्र और परिवेश और परिस्थितियाँ प्राचीन संस्कृत साहित्य और इतिहास और काव्यानुभूति के संयोग से एक ऐसा आदर्शवादी यथार्थ सृजित करते हैं, जिसमें करुणा, वेदना, त्याग, बलिदान और ओजस् की भाव-झंकृतियाँ सुनाई देती हैं।

सामाजिक यथार्थ और आदर्श यथार्थ के इस अन्तर पर टिप्पणी करते हुए स्वयं प्रसादजी ने कहा है, "यथार्थवाद क्षुद्रों का ही नहीं, अपितु महानों का भी है।" और चूँकि 'महान' और 'महानता' की परिकल्पना ही प्राचीन संस्कृति और इतिहास से हुई, इसलिए कई बार 'प्रसाद' को पुनरूत्थानवादी चिन्तक और साहित्यकार तक कहा गया। इस सरलीकरण के प्रत्युत्तर स्वरूप डॉ. रामविलास शर्मा ने अन्यत्र कहा है, "प्रसाद साहित्य हिन्दीभाषी जनता की मूल्यवान विरासत है। उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि इस संसार को सत्य समझना, पीडित जनता का समर्थन करना, अन्याय का सक्रिय विरोध करना, साहित्य में उदासीन और तटस्थ न रह कर सामाजिक विकास में सक्रिय योग देना, यह सब भारतीय संस्कृति के अनुकूल ही है, उसका सहज विकास है। प्रसाद की रचनाएँ दुःखवाद, मायावाद, शुद्ध कलावाद, भारतीय इतिहास के वर्गों को अस्वीकार करने आदि के विरोध में सजग लेखक के हाथों में सबल अस्त्र हैं।"


और अंत में
कुछ साल पहले हिन्दी में 'कवियों की कहानियाँ,' शीर्षक से उदय प्रकाश, विष्णु नागर आदि कवि-कथाकारों के हवाले से एक हास्यास्पद विमर्श खड़ा करने का प्रयास किया गया था। हास्यास्पद इन अर्थों में कि शुरू से ही चंडीप्रसाद हृदयेश, जयशंकर प्रसाद, निराला, सुभद्राकुमारी चौहान आदि कविता और कथा साहित्य में साथ-साथ सक्रिय रहे, आगे भी अज्ञेय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय आदि के यहाँ यह सिलसिला चलता रहा। भला तब कवियों की कहानियाँ और कथाकारों के कहानियाँ जैसी भेद-दृष्टि का विवेक हिन्दी आलोचना में क्यों नहीं जागा? प्रेमचन्द और 'प्रसाद' या आगे चल कर यशपाल और 'अज्ञेय' की कहानियों की दृष्टि, सम्वेदना, रचना-प्रक्रिया और प्रभावान्विति के तुलनात्मक अध्ययन को लेकर ऐसे विमर्श की कोई तुक भी हो सकती थी। शायद हिन्दी कहानी का आलोचना पक्ष भी कुछ समृद्ध होता। शुक्लजी ने बेशक प्रेमचन्द और 'प्रसाद' के सन्दर्भ में इस तरह के अध्ययन का सूत्रवत्, सूत्रपात किया था।

प्रेमचन्द और प्रसाद के कथा-साहित्य में जो अन्तर दिखाई देता है, वह सम्वेदना के धरातल का है। प्रेमचन्द के यहाँ सामाजिक सम्वेदना प्रबल थी और 'प्रसाद' के यहाँ सांस्कतिक सम्वेदना। साथ ही प्रेमचन्द मलत: कथाकार थे और प्रसाद का कथाकार उनके कवि में से अनुस्यूत हुआ था। प्रेमचन्द जब आज़ादी की बात करते थे तो उनके सामने पतनशील सामन्तवाद, उपनिवेशवाद और स्वाधीनता आन्दोलन का परिप्रेक्ष्य होता था, और 'प्रसाद' जब आज़ादी की बात करते थे तो उनके सामने सहस्राब्दियों का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य होता था और उनकी सम्वेदना में स्वतन्त्रता 'स्वयं प्रभा समुज्ज्वला' के रूप में प्रतिध्वनि होती थी। इस प्रकार प्रेमचन्द और प्रसाद का कथा-साहित्य एक अर्थ में व्यापक