पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/९३

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मेरी सहानुभूति क्यों जगी। हाँ, वह सहानुभूति थी। लैला जैसे दीर्घ पथ पर चलने वाले मुझ पथिक की चिरसंगिनी थी।

उस दिन इतना ही विश्वास करके मुझे सन्तोष हुआ।

रात को कलुआ ने पूछा-बाबूजी! आप घर न चलिएगा। मैं आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा। उसने हठ-भरी आँखों से फिर वही प्रश्न किया। मैंने हँसकर कहा-मेरा घर तो यही है रे कलुआ।

नहीं बाबूजी! जहाँ मिन्ना गए हैं। जहाँ रंजन और जहाँ कमलो गई हैं, वहीं तो घर है।

जहाँ बहुजी गई हैं-जहाँ बाबाजी...हठात् प्रज्ञासारथि का मुझे स्मरण हो आया। मुझे क्रोध में कहना पडा-कलुआ, मुझे और कहीं घर-वर नहीं है। फिर मन-ही-मन कहा-इस बात को वह बौद्ध समझता था

"हूँ, सबको घर है, बाबाजी को, मिन्ना को सबको है, आपको नहीं है?" उसने ठुनकते हुए कहा।

किन्तु मैं अपने ऊपर झुंझला रहा था। मैंने कहा-बकवास न कर, जा सो रह, आजकल तू पढ़ता नहीं।

कलुआ सिर झुकाए-व्यथा- भरे वक्षःस्थल को दबाए अपने बिछौने पर जा पड़ा। और मैं उस निस्तब्ध रात्रि में जागता रहा! खिड़की में से झील का आन्दोलित जल दिखाई पड़ रहा था और मैं आश्चर्य से अपना ही बनाया हुआ चित्र उसमें देख रहा था। चंदा के प्रशान्त जल में एक छोटी-सी नाव है, जिस पर मालती, रामेश्वर बैठे थे और मैं डांडा चला रहा था। प्रज्ञासारथि तीर पर खड़े बच्चों को बहला रहे थे। हम लोग उजली चाँदनी में नाव खेते हुए चले जा रहे थे। सहसा उस चित्र में एक और मूर्ति का प्रादुर्भाव हुआ। वह थी लैला! मेरी आंखें तिलमिला गईं।

मैं जागता था-सोता था।

सवेरा हो गया था। नींद से भरी आंखें नहीं खुलती थीं, तो भी बाहर के कोलाहल ने मुझे जगा दिया। देखता हूँ ईरानियों का एक झुण्ड बाहर खड़ा है।

मैंने पूछा-क्या है?

गुल ने कहा-यहाँ का पीर कहाँ है?

पीर!–मैंने आश्चर्य से पूछा।

हाँ वही, जो पीला-पीला कपड़ा पहनता था।

मैं समझ गया, वे लोग प्रज्ञासारथि को खोजते थे। मैंने कहा-वह तो यहाँ नहीं हैं, अपने घर गए। काम क्या है?

एक लड़की को हवा लगी है, यहीं का कोई आसेब है। पीर को दिखलाना चाहती हूँ। -एक अधेड़ स्त्री ने बड़ी व्याकुलता से कहा।

मैंने पूछा-भाई! मैं तो यह सब कुछ नहीं जानता। वह लड़की कहाँ है? पड़ाव पर, बाबूजी! आप चलकर देख लीजिए।

आगे वह कुछ बोल न सकी। किन्तु गुल ने कहा-बाबू! तुम जानते हो, वही-लैला!