पृष्ठ:जहाँगीरनामा.djvu/१९१

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संवत् १६७०।

दक्षिण जीतनेको गये और उसी सुहर्तमें मुझे भी विशाल सेना और मुख्य मुख्य अमीरों के साथ राणाके ऊपर भेजा। दैवयोगसे यह दोनो काम नहीं बने यहांतक कि मेरा समय आया और यह लड़ाई मेरीही अधूरी छोड़ी हुई थी इसलिये मैंने अपने पहिले वर्ष में जो सेना अपने राज्यको सीमा पर भेजी वह वही थी जिस पर परवेजको सेनापति किया था। बड़े बड़े अमौरीको जो राज- थानौमं उपस्थित थे उसमें नियत करके प्रचुरद्रव्य और तोपखाना साथ दिया । परन्तु प्रत्येक कार्यके सिद्ध होनेका एक समय होता है उसी अवसर पर दुर्बुद्धि खुसरोका उपद्रव उठ खड़ा हुआ और मुझे उसके पीछे पंजाबको जाना पड़ा। राज्य और राजधानीके सूने रहनेसे मैंने परवेजकोलिखा कि कुछ अमीरों सहित लौट आवे और आगरेको रखवाली करे। सारांश यह है कि उस समयभी राना का झगड़ा जैसा चाहिये था वैसांनहीं निबड़ा । जब खुसरोके बखेड़े से चित्तको शांति हुई और मैं उर्दू सहित आगरेमें आया तो महावत खां, अबदुल्लह खां और दूसरे सरदारों के साथ फिर फौजें भेजी। उस तिथि से मेरै अजमेरको प्रस्थान करनेके वक्त तक उसके देश तो लशकरोंके पैरों में रौंदे गये पर लड़ाईका रूप मेरी पसन्दके योग्य नहीं बंधा। मैंने सोचा कि आगर में कोई काम नहीं है और यह 'भी मुझको निश्चय होहो गया था कि जबतक मैं आप नहीं जाऊं इस लड़ाई में सफलता नहीं होती इमलिये निर्दिष्ट समयमैं आगरके किलेसे निकलकर दहराबागमें मुकाम किया।

दूसर(१) दिन दशहरेका उत्सव था बादशाहने नियमानुसार हाथी घोड़ोंको सजवाकर देखा।

खुसरोका छूटना।"

खुसरोको मा बहनें बादशाहसे कहा करती थीं और बादशाह को भी पुत्रमोहसें करुणोः आई तो खुसरोको बुलाया और कहा कि सलाम करनेको आया करे।


(१) आश्विन सुदी ३ को दशहरेका उत्सव न जाने कैसे हुआ !