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सामाजिक सुधार बनाम राजनीतिक सुधार


की ढिठाई की थी और उसके अतिथियों ने अछुत होकर घी खाने की मूर्खता की थी। इसमें सन्देह नहीं कि घी केवल धनी लोग ही खा सकते हैं। परन्तु आज तक यह कोई भी नहीं समझता था कि घी खाना भी कोई बड़प्पन का निशान है । चकवारा के सवर्ण हिन्दुओं ने प्रकट कर दिया कि अछूतों को घी खाने का कोई अधिकार नहीं, चाहे वे खरीद भी सकते हों; क्योंकि इससे हिन्दुओं की गुस्ताखी होती है । यह १ ली अप्रैल सन् १९३६ या उसके लगभग की घटना है ।।

इन घटनाओं के वर्णन के बाद अब सामाजिक सुधार का पक्ष सुनिये । इसमें हम मिः बनर्जी की युक्ति को ही लेकर राजनीतिक हिन्दुओं से पूछते हैं -"अछूतो-जैसी अपने देश की एक बड़ी श्रेणी को सार्वजनिक स्कूलों के उपयोग की आज्ञा न देते हुए भी क्या आप राजनीतिक शक्ति पाने के योग्य हैं ? उनको सार्वजनिक कुओं के उपयोग की आज्ञा न देते हुए भी क्या आप राजनीतिक शक्ति पाने के योग्य हैं ? उनको सार्वजनिक बाज़ारों और गलियों का उपयोग करने से रोकते हुए भी क्या आप राजनीतिक शक्ति पाने के योग्य हैं ? उनको अपनी पसन्द के अनुसार गहना और कपड़ा पहनने से रोकते हुए भी क्या आप स्वराज्य पाने के योग्य हैं ? उनको उनकी पसन्द का भोजन करने से रोकते हुए भी क्या आप राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के अधिकारी हैं ?" ऐसे ही और बीसियों प्रश्न पूछे जा सकते हैं, परन्तु हमारे मतलब के लिए इतने ही पर्याप्त हैं । आश्चर्य है कि मिस्टर बनर्जी यदि आज जीते होते, तो उनके पास इनका क्या उत्तर होता ! निश्चय ही कोई भी समझदार मनुष्य इनके उत्तर में ‘हाँ नहीं‌