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जातिभेद का उच्छेद


कह सकता । प्रत्येक काँग्रसी मनुष्य को, जो मिल साहब के इस सिद्धान्त की रट लगाता है कि एक देश को दूसरे देश पर शासन करने का अधिकार नहीं, यह भी मानना पड़ेगा कि एक श्रेणी को दूसरी श्रेणी पर शासन करने का अधिकार नहीं ।

तब सामाजिक सुधार दल की हार कैसे हुई ? इस को समझने के लिए हमें इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि उस समय सुधारक लोग किस प्रकार के सामाजिक सुधार के लिए आन्दोलन कर रहे थे। यहाँ यह बता देना अनावश्यक न होगा कि सामाजिक सुधार के दो अर्थ है । एक तो हिन्दू-परिवार का सुधार और दूसरा हिन्दू-समाज की पुनर्रचना और पुनःसङ्गठन । इन में से प्रथमोक्त का सम्बन्ध विधवा-विवाह, बाल-विवाह आदि से है और शेपोक्त का वर्ण-भेद के मिटाने के साथ । सोशल कान्फरेन्स एक ऐसी संस्था थी, जिसने अपना सम्बन्ध अधिकतर हिन्दू-परिवार के सुधार के साथ ही रखा था ।इस में अधिकांश ऊँचे वर्गों के ही हिन्दू थे, जिन्हें वर्ण-भेद को मिटाने के लिए आन्दोलन करने की आवश्यकता का अनुभव ही न होता था या जिन में इस अान्दोलन को करने का साहस ही न था । उनको स्वभावतः लड़कियों को विधवा रहने पर मजबूर न करने, बाल-विवाह आदि बुराइयों को दूर करने की अधिक ज़रूरत मालूम होती थी, क्योंकि वे उन में प्रचलित थीं और व्यक्तिगत रूप से उनको दुःख दे रही थीं। वे हिन्दू-समाज के सुधार का यत्न नहीं करते थे। परिवार के सुधार के प्रश्न पर ही सारा और युद्ध हो रहा था । जात-पाँत तोड़ने के अर्थों में सामाजिक सुधार के साथ इसका कोई सम्बन्ध न था । सुधारकों ने इस प्रश्न को कभी बीच में आने ही नहीं दिया। यही कारण है, जिस से सामाजिक सुधार-दल हार गया ।