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जात-पांत का गोरखधंधा


समय के भारतवासियों के हृदय में वंदशास्त्रों के प्रति कोई मान और श्रद्धा का भाव विद्यमान नहीं है। वे केवल रिवाजों अर्थात् रुढ़ियों के दास हो चुके हैं । वह शास्त्रों का केवल इतना ही मान करते हैं कि कथा सुनली और समाप्ति पर इस ग्रंथ की पूजा कर के सवारी निकालदी । उनको इससे कुछ मतलब नहीं कि उस में जो कुछ लिखा है उसको शिरो- धार्य कर के तदनुसार आचरण करना चाहिये । यह इसीका परि- णाम है कि हिन्दुओं का धर्म केवल पुस्तकों में ही है आचरण में नहीं। वे अपना सारा ज़ोर रीत रिवाजों की गुलामी कायम रखने ही में लगाते हैं, शास्त्रीय आज्ञाओं के प्रति ध्यान ही नहीं तथापि थोड़े से शास्त्रीय प्रमाण नीचे दिये जाते हैं। यदि शास्त्रों पर सच्ची श्रद्धा और विश्वास हो तो यही बहुत हैं। और यदि श्रद्धा न हो तो लाखों प्रमाण बेकार हैं।

सब से प्रथम मैं श्रीमद्भागवत का प्रमाण देता हूं जिसको भाज फल पांचवें वेद की उपाधि दी जाति है जिस की घर घर कथा बंचाई जाती है, पूजा आरती की जाती है और सवारी निकाली जाती है।

एक एव पुरा वेदः प्रणवः सर्व वाङ्मयः ।

देवो नारायणो नान्यः एकोऽग्निर्वर्ण एव च ॥

(श्रीमद्भागवतस्कंध ९, श्लो० १४)